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________________ त्रिंशः बराङ्ग चरितम् म RATRA अर्हत्प्रणीतागमदृष्टिसत्त्वाः सहेतुदृष्टान्तवचःप्रगल्भाः। नयप्रमाणप्रणिधिप्रवीणा विवादिनां वादमदं विनिन्युः ॥६॥ केषांचिदक्षीणमहानसत्वं क्षीराश्रवत्वं वरकोष्ठबुद्धिः । संभिन्नता बीजपदानुसारा देवद्धिरिष्टैः सगणैरुपेताः॥ ६९ ॥ केषांचिदामर्शनमात्रमेव तथा परेषामथ विप्लुषस्तु । श्वेला'मलाश्चैव तपोधनानां सर्वच भैषज्यमभूत्परेषाम् ॥ ७०॥ केचिज्जले पुष्पदले च केचित्फलेषु पत्रेषु मरुस्थलेषु ।। श्रेण्यां च तन्तावथ जङ्घया च प्रयान्ति सम्यक्तपसः प्रभावात् ॥ ७१ ॥ सकल प्रत्यक्ष केवलज्ञानके स्वामी अर्हन्त केवलोके द्वारा कहा गया आगम ही उनकी निष्पक्ष दृष्टि थी। उनका प्रत्येक कथन तर्क तथा उदाहरणसे पुष्ट हानेके कारण अकाट्य होता था। वे नैगम आदि समस्त नयों ( अपेक्षाओं ) तथा प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंका यथास्थान प्रयोग करने में अति कुशल थे । यही कारण था कि उन्होंने मिथ्या सिद्धान्तोंके समर्थकोंका अभिमान चकनाचूर कर दिया था ।। ६८॥ तपरमा तनो तनमें प्रभाव किन्हीं ऋषियोंकी शक्ति कभी भी क्षीण न हो सकती थी। दूसरोंके बलका अनुमान करना हो असंभव था। किन्हींकी मुद्राको देखकर अथवा उपदेशको सुनकर ऐसा लगता था मानो दूधको धारमें नहा गये हैं। दूसरोंको बुद्धि उत्तम कोशके समान थी जिससे प्रत्येक वस्तुका उत्तर सरलतासे प्राप्त किया जा सकता था। दूसरे मुनियोंका ज्ञान फूलकी पंखुरियोंके समान (एकमेंसे दुसरा) खिलता जाता था । अन्य ऋषियोंका बुद्धि बीजपदके ऊपर ही प्रस्फुटित होती जाती थी। इन मुनियोंमें देवोंकी ऋद्धियाँ तथा समस्त सद्गुण व्याप्त थे।। ६९ ।। तपके अतिशय किन्हीं मुनियोंसे छुई हुई हवा अथवा उनके तपःपूत शरीरके स्पर्शसे ही रोग नष्ट हो जाते थे। दूसरे तपोधनोंका विप्लुष (थूल आदि ) ही अनेक रोगोंकी अचूक औषधि होता था। उन ऋषियोंकी नाक तथा मल आदि भी प्राणान्तक रोगोंको शान्त कर देते थे ।। ७ ।। शुद्ध तपस्याके प्रभावसे उनको ऐसी-ऐसी सिद्धियाँ हो गयी थों कि उनमेंसे कितने ही गुरुवर पानीपर चलते थे, दूसरे फूलोंपर चलते थे तो भी उनके डंठल अथवा पौधे न सूखते थे। कुछ ऐसे भी साधु थे जो वृक्षोंमें लगे फलोंपर भी खड़े हो सकते मिथे, अन्य लोग वृक्षोंके पत्तोंपर खड़े हो जाते थे । ग्रीष्ममें जलते हुए मरुस्थल में भी वे चल सकते थे । सांकल अथवा तागेपर चलना तो उनके लिए बड़ी साधारण-सी बात थी। वे तलुओंसे न चलकर जांधके ही बल दौड़ सकते थे ।। ७१ ।। १. क क्षेला। ukrassmeterantsचमच थे। कुछ ऐसा भी वे चल सकते थे । k Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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