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वरान
चरितम्
चतुर्थषष्ठाष्टमपक्षमासाचन्द्रायणाद्यैरुपवासयोगः आतापनैरभ्यवकाशवासः सवृक्षमलैः प्रतिमाप्रयोगैः ॥ ६४॥ तपोभिरत्युग्रतमैरुदारैः सत्त्वानुकम्पावतभावनाभिः। संकल्प्य संबंधितधर्मरागैः कर्माणि तेषां तनुतामुपेदु:॥६५॥ कर्म स्तनुत्वं गतवत्सु तेषु महात्मनां सद्यशसां तपोभिः । गते पुनर्वर्षशते यतोनामृद्धिप्रवेका विविधा बभूवुः ॥ ६६ ॥ महद्धिभिर्नेकविधा निरीशा दुरासदाभिन सुरासुरैश्च । प्रत्यक्षविज्ञानविभूतिभिश्च प्रभावयां जैनमतं बभूव ॥ ६७॥
____कायक्लेशको चरमसीमा चार दिन, छह दिन, आठ दिन, एक पक्ष तथा एक मास पर्यन्त लगातार उपवास करके, चन्द्रायण आदि उपवास बहुत व्रतोंको पाल कर आतापन (ग्रीष्म ऋतुमें) शीतकालमें अभ्यवकाश तथा वर्षा ऋतुमें वृक्षमूल आदि योगोंको धारण करके प्रतिमा ( कायोत्सर्ग) प्रयोगोंके द्वारा ॥ ६४ ॥
अत्यन्त कठोर तपोको दीर्घकाल तक संगोपांग तप कर, प्राणिमात्रपर दया करके तथा सदा हो दयामय भावोंको रखकर, दिन रात ऐसी ही कल्पनाएँ करते थे जिनके द्वारा धर्मप्रेम दिन दूना और रात चौगुना बढ़ता था। इन सब साधनाओंके द्वारा उन ऋषियोंके समस्त कर्म अत्यन्त क्षीण हो गये थे ।। ६५ ।।
रिद्धि-सिद्धि इन ऋषियोंकी तपस्याकी विमलकोति सब दिशाओंमें फैल गयी थी। उक्त क्रमसे इनके अनादिकालसे बँधे कर्म अत्यन्त क्षीण होते जा रहे थे तथा तपस्या भी चल ही रही थी। इस प्रकार लगभग सौ वर्ष बीत जानेपर इन ऋषियोंमें चारण [ आदि ऋद्धियोंका बहु मुख उद्रेक हुआ था ॥ ६६ ॥
इस प्रकार वे सब ही ऋषि अनेक जातिकी ऋद्धियोंके स्वामी हो गये थे। वे सब ही ऋद्धियाँ ऐसी थीं जिन्हें चक्रवर्ती आदि श्रेष्ठ पुरुष, सुर तथा असुर भी अनेक प्रयत्न करके सिद्ध न कर सकते थे। इनके साथ-साथ वे मति तथा श्रुत ज्ञानोंकी
[६२३] सीमाको पार करके आंशिक प्रत्यक्ष अवधि तथा मनःपर्ययज्ञानोंके स्वामो हो गये थे। इन समस्त योग्यताओंके द्वारा उन्होंने जैनमतको पूर्ण प्रभावना की थी।। ६७ ॥ १. [ संकल्प°] २. [ तनुतामुपेयुः]। ३. [ कर्म स्वणुत्वं ] ।
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