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________________ चतुर्थः वराङ्ग चरितम् सग चारित्रमोहनीयेन चारित्रं न च लभ्यते । अचारित्रः पुनर्घोरे नरके पच्यते चिरम् ॥ ८२ ॥ हर्षे रोषे त्ववज्ञायामेकाकी वान्यसंश्रितः । निष्कारणं च लपते हास्यकर्मोदयावृतः ॥ ८३ ॥ पापक्रियाभियुक्तेषु अफलेष्वहितेषु च । रतिकर्मोदयान्नित्यं रमते दुर्जनेषु सः ॥ ८४ ।। ज्ञानं व्रतं तपः शीलं दैन्यान्यसुखकारणम् (?) । लब्ध्वा न रमते तत्र अरतेः कर्मणः फलात् ॥५॥ एकं भयं समासृत्य भयस्थानेषु सप्तसु । वेपिताः स्खलद्वाक्यो भयकर्मोदयाद्भवेत् ॥ ८६ ॥ यह चारित्रमोहनीयकी ही महिमा है जो जीव चाहनेपर भी किसी प्रकारके चारित्रका पालन नहीं कर पाता है। तथा जो जीव किसी भी प्रकारके चारित्रको धारण नहीं कर सका है उसका तो कहना ही क्या है, विचारा अनन्तकालतक घोर नरकमें सड़ता है ।। ८२॥ नोकषाय-अनुभाव हास्य नोकषायके उदय होनेपर यह जीव प्रसन्नताके अवसरपर, साकूत क्रोधमें तथा कहींपर अपमान होनेके बाद अकेले ही या अन्य लोगोंके सामने भी प्रकट कारणके बिना ही हँसता है अथवा अपने आप ही कुछ बड़बड़ाता जाता है ।। ८३ ।। जब किसी जीवके रति नोकषायका उदय होता है तो उसे उन दुष्ट लोगोंसे ही अधिक प्रीति होती है जो पापमय कर्मोंके करनेमें ही सदा लगे रहते हैं, जिनके कर्मोंका परिणाम कुफल प्राप्ति ही होता है तथा निष्कर्ष शुद्ध अहित ही होता है ।। ८४ ॥ यह अरति नोकषायका ही फल है जो जीव ज्ञानार्जनके साधन, व्रतपालनका शुभ अवसर, तप तपनेकी सुविधाएँ, ज्ञानाभाव मार्जनकी सामग्री, लौकिक और पारलौकिक सम्पत्ति (द्रव्य ) तथा अन्य सुखोंके कारणोंकी प्राप्ति हो जानेपर भी अपने आपको उनमें नहीं लगा सकता है ।। ८५ ।। श्मशान, राजद्वार, अन्धकार आदि सात भयके स्थानोंपर किसी साधारणसे साधारण भयके कारणके उपस्थित होते ही ISEASERanaaee [७५] --- - - १. क शीलच्यॆन्योन्य°, [शीलाद्यन्मोन्यसुख° ], [शीलं धन्योऽन्यसुखकारणम् ], २. म भयः, Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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