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________________ बराङ्ग भूमिका पद विभागसे भी मुक्ति ली है। ऐसी स्थितिमें सहायक पद तथा धातुरूपके अन्तरालमें शब्द प्रक्षेपण ऐसो सुप्रचलित कवि मान्यताको यहाँ समीक्षा करना पिष्टपेषण ही होगा। 'दूतवरान्ससर्ज' मति संनिदध्युः' 'स्वबन्धु मित्रान् ""जुहुः', आदि प्रयोग पद। व्यपलोपसे भी अधिक वैचित्र्यपूर्ण हैं । 'यथेष्टमुपभोग परीप्सयिन्यः' 'विधातयन्ति सम्यक्वं' 'तोदयन्ति' 'चषयन्ति' आदि प्रयोग ने भी अपने स्थानपर कम वैचित्र्य पूर्ण नहीं हैं। उपसर्ग संयोगसे पद परिवर्तन संस्कृति व्याकरणको 'सुप्रसिद्ध पद्धति है किन्तु आचार्यने उसे भी कालिदासादिके समान पद-दलित किया है। संज्ञा और विशेषणोंको भाववाचक बना देना आचार्यश्रीको अपनो विशेषता है अदृश्य रूप (१४-२०), गाध ( २०-२४), उत्सुक ( २२-७६ ), निराश्रय ( २१-६३ ), निरमल ( २५-४५), आदि दृष्टान्तोंको वरांगवरितमें भरमार है। इसी प्रकार कारकोंके प्रयोग, कृदन्त रूपों तथा तद्धितान्त शब्दोंके रूप भी विचित्र हैं। सबसे बड़ी विचित्रता यह है । कि जटाचार्य ने कुछ ऐसे शब्दोंका प्रयोग किया है जिन्हें कठोर-संस्कृत-सम्प्रदायवादी सहज हो सहन नहीं कर सकते । उदाहरणार्थ विकसितके लिए फुल्ल ( २.७३ ), वृषभके अर्थ में गोण ( ६-१५), आदि शब्द । मैथुन, बर्करा, अद्धा ( काल ), आवहिता, सम्पदा, सादन आदि प्रयोग स्पष्ट ही अपनी प्राकृत अथवा प्रान्तीय भाषासे उत्पत्तिका स्मरण दिलाते हैं। कठोर संस्कृतवादी इन सब प्रयोगोंको कविको निरंकुशता हो कहेंगे। पर मेरी दृष्टिसे ये प्रयोग संस्कृतके इतिहासके 'माइल स्टोन' हैं। ये बताते हैं कि 'प्रकृतिस्तु संस्कृतम्' मान्यता वेद-ब्राह्मणको सर्वोपरिताके समान भाषा जगत्में संस्कृतकी सर्वोपरिताको स्थापनाके लिए गढ़ा गया था। वास्तवमें प्रकृति प्राकृत हो है उसका मनुष्यकृत अतिबद्ध रूप संस्कृत है। इसीलिए काव्य युगके महापुरुष जटाचार्यने संभवतः इसके जीवित रूपको ही अपनाया है। यदि ऐसा उन्हें अभीष्ट न होता तो वे तत्तत् भाषाओंके शब्द तथा सरल शब्दधातु रूपादिको इतना न अपनाते । केवल छन्दोंको मात्रा संख्या ठोक रखने के लिए ही इतना बड़ा कवि व्यापक रूपसे व्याकरण नियमोंको इच्छानुसार ढाले यह संभव नहीं प्रतीत होता। जटाचार्यको कृतियाँ वरांगचरितके सिवा अब तक आचार्य जटासिंहनन्दिको दूसरो कृति सुननेमें नहीं आयो है । यदि यह सत्य है कि वरांगचरित आचार्यकी अप्रौढावस्थाकी कृति है तो उन्होंने अन्य ग्रन्थ अवश्य रचे होंगे, जैसा कि उत्तरकालीन कवियोंके ससम्मान । स्मरण और सम्बोधनोंसे स्पष्ट है । इसको पुष्टि योगोन्द्र-रचित अमृताशीतिमें आये निम्न श्लोकसे भी होती है"जटासिंहनद्याचार्य वृत्तम् तावत क्रिया: प्रवर्तन्ते यावद् द्वैतस्य गोचरम् । अद्वये निष्कले प्राप्ते निष्क्रियस्य कूतः क्रिया ।" __ यतः इस श्लोककी शैली ( सापेक्ष पदोंका प्रयोग ) जटाचार्यको हो प्रतीत होती है तथा यह वरांग-चरितमें नहीं आया है अतः स्पष्ट है कि यह पद्य योगीन्द्राचार्यने आचार्य जटासिंहनन्दिके उस ग्रन्थसे लिया होगा जो आज लुप्त है। जटाचार्यका जैनसिद्धान्त पाण्डित्य अमृताशीतिमें उद्धृत उक्त पद्यसे भासित होता है तथा वरांगचरितके धर्मशास्त्रमय वर्णनोंसे स्पष्ट हो जाता है कि For Private & Personal Use Only [१४] www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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