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________________ पञ्चमः वराङ्ग चरितम् नारका भीमरूपास्ते दुर्बलाः पूतिगन्धिनः। अव्यक्तहण्डसंस्थानाः पण्डकाइचण्डभाषिणः ॥३२॥ उत्पन्नान्सहसा दृष्ट्वा विभङ्गज्ञानदृष्टयः । स्मरन्तः पूर्ववैराणि आधावन्ति समन्ततः ॥३३॥ त्रासयन्तोऽथ गर्जन्त आक्रोशन्तोऽस्त्रपाणयः। जन्मान्तरे कृतान् दोषान् ख्यापयन्तः श्रयन्ति तान् ॥३४॥ पूर्वापराधानात्मीयान् ज्ञात्वा तु दुरनुष्ठितान् । भयत्रस्तविषण्णामा आरभन्ते पलायितुम् ॥३५॥ दृष्ट्वा पलायमानांस्तान्नोद्धकामास्त्वरान्विताः । भोषयन्तः प्रचण्डाश्च अनुधावन्ति धावतः ॥३६॥ संप्राप्य भयवित्रस्ताननाथान् शरणागतान् । मुसलैर्मुद्गरैः शूलैस्ताडयन्तोऽथ मर्मसु ॥३७॥ सर्ग S TRIPATHIPAHIPASAAHIT हैं और उसीसे अशान्त होकर जन्मके स्थानपरसे ऊपरको उचकते हैं और बार-बार वहीं ऐसे गिरते हैं जैसे जलते भाड़में तिल उचट-उचट कर गिरते हैं ।। ३१ ।। सबही नारकियोंके रंग रूप भयावने होते हैं, वे सब अत्यन्त दुष्ट-वली होते हैं और आवेशमें आकर अपने बलका दुरुपयोग हो करते हैं, शरोरोंसे असह्य सड़ाँद आती रहती है, उनका संस्थान ( शरीर गठन ) ऐसा ऊबड़-खाबड़ होता है कि उन्हें कुब्जक भी नहीं कह सकते, सबही नपुसक होते हैं और अत्यन्त कटु तथा कठोर बातें करते हैं ॥ ३२ ॥ उन सबको विभंग ( कुत्सित ) अबधिज्ञान होता है फलतः नये नारकियोंको उत्पन्न हुआ देखकर ही उन्हें उनके (अपने) प्रति अपने पूर्वभवके वैर याद आ जाते हैं, फलतः वे सब नये नारकीयपर हर तरफसे हमला करते हैं ।। ३३ ।। उनके हाथ ही शस्त्रोंके समान तेज होते हैं, वे हाथ उठाकर नये नारकियोंको धमकाते हैं, उनपर जोर-जोरसे गरजते हैं, गालियां देते हैं और निन्दा करते हैं और दूसरे जन्मोंमें (नूतन नारकियों द्वारा) किये गये दोषों और अपकारोंको बकते हुए उनपर टूट पड़ते हैं ।। ३४ ॥ वे नारकी पूर्व जन्मोंमें किये गये अपने अपराधों जौर दोषोंकी याद आते ही भयसे काँपने लगते हैं, शरीर ढीला पड़ जाता है और अपने विरोधीको आता देखखर भागना प्रारम्भ कर देते हैं ॥ ३५ ॥ दूसरे नारकी ज्योंही उन्हें भयसे भागता देखते हैं त्योंही वे जल्दीसे आगे बढ़कर उनको रोक लेना चाहते हैं । परिणाम यह होता है कि वे और उग्र होकर उनको डराते हैं तथा जिधर-जिधर वे भागते हैं उनके पीछे पीछे दौड़ते जाते हैं ।। ३६ ॥ भयसे भीत होकर भागते हुए उन असहाय तथा सब प्रकारसे उनके आश्रित नारकियोंको जब अन्तमें वे पकड़ ही लेते हैं तो उनके मर्म स्थलोंपर मूसलों, मुद्गरों और भालोंकी निर्दय बौछार प्रारम्भ कर देते हैं ।। ३७ ।। MATIPAHISHEDAtIPAHISHA R [८७] HAI । १. क षटकाः। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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