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यराङ्ग चरितम्
विलपन्तो रुवन्तश्च' ताड्यमाना दुरात्मभिः । पतन्ति भिन्नमूर्धानो धरण्यां वेदनादिताः ॥ ३८ ॥ सिंहव्याघ्रमृगदीपा(?) गृध्रोलूकाश्च वायसाः । अयस्तुण्डैर्नखैर्दन्तैः पतितान्भक्षयन्ति तान् ।। ३९ ।। चिल्लोहेषु निक्षिप्य दुदन्तो लोहयष्टिभिः । मांसमृष्ट रसासक्तान्मांसवत्खादयन्ति तान् ॥ ४० ॥ जिह्वान्त्राणि च नेत्राणि केचिदुत्कृयें निर्दयाः । ग्रथित्वाथ शिरासूत्र : शोषयन्ति शिलातले ॥ fear परगात्राणि प्रादुर्व्यूषितका (?) मुहुः । तेषां वक्राण्यधः कृत्वा धूपयन्ति मुहुर्मुहुः ॥ हस्तपादमथ च्छित्वा कर्णनासापुटानि च । रुधिरार्द्राणि संगृह्य क्रूराः कुर्वन्ति दिग्वलिम् ॥ ४३ ॥ केचिच्छूलेषु निक्षिप्य भ्रामयन्त्यभिधावतः । निक्षिप्योलूखले कांश्चिच्चूर्णयन्त्यधमा भृशम् ॥ ४४ ॥
४१ ॥
४२ ॥
नारकी व्यवहार
उन पापियोंके द्वारा निर्दय रूपसे पीटे गये वे नूतन नारकी रोते हैं, विलाप करते हैं और शिर आदि अंगोंके फट जानेपर वेदनासे विह्वल हो जाते हैं तथा मरेसे होकर पृथ्वीपर गिर जाते हैं ।। ३८ ।।
घायल और बेहोश होकर जमीनपर गिरे उन नारकियोंको तब सिंह, बाघ, हिरण, हाथी, गिद्ध, उल्लू, कौआ आदि पशु पक्षी अपने-अपने लोहे के समान नखों, दाँतों और चोंचोंसे उन्हें खाते हैं ।। ३९ ।
नारकी दुःख
दूसरे नारकी उन्हें लोहे के कड़ाहोंमें डाल देते हैं और लोहेकी सीकोंसे उन्हें खूब कोंचते हैं। अन्तमें जब वे मांस, मिट्टी, मज्जा और अन्य रसोंसे लथपथ हो जाते हैं तो उन्हें माँसकी तरह काट काटकर खाते हैं ॥ ४० ॥
अन्य निर्दय नारकी उनकी जीभ, नाक, कान और आँख आदि अंगोंको बलपूर्वक नोच लेते हैं। फिर इन सबको शिरारूपी तागों में गूंथ देते हैं और उष्ण शिलाओंपर फैलाकर इन्हें सुखाते हैं ॥ ४१ ॥
जो जीव बार-बार दूसरोंके हाथ, पैर आदि अंग काट देते थे तथा मांसादि खूब खाते थे उन्हें नारकी, नीचेको मुख करके पटक देते हैं और पुनः पुनः बिना बिलम्बके उनको खूब घुमाते हैं ॥ ४२ ॥
इसके बाद उनके हाथ, पैर, नाक, कान आदि अंगोंको काट लेते हैं और जबकि उनसे रक्त बहता ही रहता है तभी उन्हें इकट्ठा कर लेते हैं। इसके बाद अपने मिथ्यात्व जन्य संस्कारोंसे प्रेरित होकर उन सब अंगोंको बलिरूपमें दिशाओं को चढ़ा देते हैं ।। ४३ ।। दूसरे नारकी अंगोंको काटकर अपने भालोंमें फँसा देते हैं; फिर जोरोंसे दौड़ते जाते हैं और उन अंगोंको चक्करकी तरह घुमाते जाते हैं । अन्य महापतित नारकी उन्हें खोखलीमें फेंक देते हैं और बादमें लगातार मूसल मारकर बिल्कुल चूर्णं कर १. [ रुदन्तश्य ] । २. [ द्विषाः ] ६. मजिह्वां घ्राणे । ४. क उद्धृत्य । ५. क प्राधत्वूषितका (?) ।
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पञ्चमः
सर्गः
[ac]
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