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________________ वराङ्ग वरितम् पिबन्ति गन्धवत्कांश्चिन्मृद्गुन्ति निर्दयाः । क्रकचैर्दारयन्त्यन्यानक्षीण्युत्पाटयन्ति च ॥ ४५ ॥ पिबन्ति रुधिराण्यन्ये शस्त्रविद्ध' शिरः पुनः । ग्रसन्ति मुखतः कांश्चित्पादतस्त्वपरे परान् ॥ ४६॥ छिन्दन्यसिभिरङ्गानि क्षुरिकाभिर्द्रजन्ति च । टङ्कैः शिरःकपालानि वासिभिर्वदनानि च ॥ ४७ ॥ तृणैवेष्ट्य सर्वाङ्गं ज्वालयन्त्यग्निना भृशम् । शङ्कुर्मू स्वयोत्खन्य तुदन्त्यक्षीणि चोल्मुकैः ॥ ४८ ॥ मक्षिका मशकाचैव वृश्चिकाच्च पिपीलिकाः । खादयन्ति व्रणान्यन्ये स्रवद्र धिरपूतिनः ।। ४९ ।। ये हत्वा प्राणिनः पूर्वं मांसभक्षणतत्पराः । तान्मुहुर्यातनाभिश्च दण्डयन्ति परस्परम् ॥ ५० ॥ लोभाद्रागात्प्रमादाद्वा राजवाक् लभ्यते मदात् । प्रभुत्वाच्च कुसामर्थ्यादसदुक्त्वान्यहसकान् ( ? ) ॥ ५१ ॥ देते हैं ॥ ४४ ॥ नरक कैलि वे इतने दयाहीन होते हैं कि नरकियोंको सगन्धि द्रव्य (लेप) की तरह पीस डालते हैं अथवा धान्यके समान दलते हैं। तीक्ष्ण शूलोंके द्वारा आँखोंको बेध देते हैं तथा काँटोंमें फँसाकर आँखे उपार लेते हैं ॥ ४५ ॥ कुछ नारकी दूसरोंके रक्तको पानीकी तरह पी जाते हैं जबकि शस्त्रोंकी मारसे उनका शिर फूट जाता है, ऐसी हालतमें कोई उसे मुखको तरफसे खाना शुरू करता है, दूसरा उसे पैरोंकी तरफसे चखने लगता है । वे एक दूसरेके अंगों को तलवारसे काट देते हैं ॥ ४६ ॥ इसके उपरान्त छुरियोंसे उनकी बोटी-बोटी बना देते हैं। टाँकिया चला चलाकर शिरके कपालको फोड़ देते हैं, और तलवारोंसे मुखोंको क्षत-विक्षत कर डालते हैं ॥ ४७ ॥ पहिले सम्पूर्ण शरीरको घासमें लपेट देते हैं फिर आग लगाकर बिल्कुल जला डालते हैं । शिरमें नुकीली कीलोंको गाड़ देते हैं और टेढ़ी टेढ़ी सीखोंसे आंखें उखाड़ लेते है ॥ ४८ ॥ जब खण्डित अंगोंसे रक्त और पीप बहने लगती है तब हो मक्खियाँ, मच्छर, विच्छू, चीटियां, आदि कृमि घाबोंपर लग जाते हैं और उन्हें लगातार काटते हैं ।। ४९ ।। जो प्राणी अपने पूर्वजन्ममें दूसरे जन्तुओंको मारते थे और आनन्दसे उनका मांस खानेके लिए तैयार रहते थे, उन्हें ही नरक में पहुँचने पर वे नारकी बड़ी-बड़ी यातनाएँ देते हैं और इसी प्रकार आपसमें दण्ड व्यवस्था करते हैं ॥ ५० ॥ नारको दुःख तथा कारण जिन लोगोंने अपने पूर्वजन्मोंमें लोभसे प्रेरित होकर, राग द्वेषके कारण, प्रमादसे अथवा राजाकी आज्ञाको पाकर, १. क शस्त्रविद्धं । Jain Education International १२ For Private & Personal Use Only पञ्चमः सर्गः [९] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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