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बराङ्ग
चरितम्
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कुल-योनिसंख्या-साधारणतया 'कुल' शब्द वंशवाची है किन्तु शास्त्रमें इसका प्रयोग जीवके प्रकारों या वर्गकि लिए हुआ है । अर्थात् जितने प्रकारसे संसारी जीव जन्म लेते हैं उतने ही कुल होते हैं। उनका विशद निम्न प्रकार है
पृथ्वी कायिक जीवोंके २२ लाख कोटि, जलकायिकोंके ७ला०को०, तेज कायिकोंके ३ ला०को०, वायुका० ७ला०को०, वनस्पति कायिकोंके २६ला०को०, द्वीन्द्रियोंके ७ला०को०, त्रीन्द्रियोंके ८ला०को०, चतुरिन्द्रियोंके ९ला०को०, जलचर पंचेन्द्रियोंके १२शलाको०, पक्षियोंके १२ला०को०, चौपायोंके १७ला०को०, सरीसपोंके ९लाको०, देवोंके २६ला०को०, नारकियोंके २५ला०को०, मनुष्योंक १२ला०को० ।
योनि-जिस आधारमें जीव जन्म लेता है उसे योनि कहते हैं। इसके दो भेद हैं आकार योनि और गुण योनि । शंखावर्त, कूर्मोन्नत और वंशपत्रके भेदसे आकार योनि तीन प्रकारकी है । गुणयोनि भी सचित्त, शीत, संवृत, इनके उल्टे अचित्त उष्ण, विवृत तथा मिश्रित सचित्ता-चित्तादिके भेदसे नौ प्रकारकी है । इसके भेदोंकी संख्या-नित्यनिगोद, इतरनिगोद, पृथ्वी, अप, तेज तथा वायुकायिकोंमें प्रत्येककी ७ ला० (४२ ला०) वनस्पतिकाय १० ला०, द्वि-त्रि- तथा चतुरिन्द्रियोंमें प्रत्येककी २ ला० (६ लाख ) नारकी, तिर्यञ्च तथा देवोंमें प्रत्येककी ४ लाख (१२ लाख) तथा मनुष्यकी १४ लाख योनियां होती हैं। इन सब योनियोंको मिलाने पर समस्त योनि संख्या ८४ लाख होती है। विकलेन्द्रिय-एक इन्द्रियसे लेकर चतुरिन्द्रिय तकके जीव । अर्थात् वे जीव जिनके पाँचों इन्द्रियाँ नहीं हैं ।
सप्तम सर्ग हैमवत-हरण्यक-जम्बूद्वीपके दूसरे तथा छठे क्षेत्र । ये दोनों जघन्य भोग-भूमि हैं। हरि-रम्यक-जम्बूद्वीपके तीसरे तथा पांचवें क्षेत्र । ये दोनों मध्यम भोग-भूमियां हैं । ईति-अतिवृष्टि, अनावृष्टि, टिड्डी, चूहे, पक्षी तथा आक्रमण करनेवाले राजा या राष्ट्र आदि जनताके शत्रुओंको ईति कहते हैं ।
कल्पवृक्ष-इच्छानुसार पदार्थ देनेवाले वृक्ष हैं । ये वनस्पतिकायिक न होकर पृथ्वीकायिक होते हैं । इनके निम्न दस प्रकार गिनाये हैं-१ मद्यांग-नाना प्रकारके पौष्टिक रस देते हैं । २ वादित्रांग-विविध प्रकारके बाजे इनसे प्राप्त होते हैं । ३ भूषणांग-मनोहर भूषण देते हैं। ४ मालांग-नाना प्रकारके पुष्प मालादि देते हैं। ५ दीपांग-सब प्रकारके प्रकाश देते हैं । ६ ज्योतिरंग-समस्त क्षेत्रको कान्तिसे आलोकित करते हैं । ७ गृहांग-सुविधा सम्पन्न भवन देते हैं । ८ भोजनांग-सर्व प्रकारके स्वादु भोजन देते हैं । ९ भाजनांग-अनेक प्रकारके पात्र प्रदान करते हैं । १० वस्त्रांग-मनोहर वस्त्र देते हैं ।
वर प्रसंग-पुष्पके प्रसाधनों (आभूषणों ) के लिए आया है । अर्थात् जो वृक्ष चम्पक, मालती, पलास, जाति, कमल, केतकी, आदिक पांच प्रकारकी मालाओंको दें उन्हें वरप्रसंग कल्पवृक्ष कहते हैं।
संयमी-पांचों इन्द्रियोंको वशमें करनेवाला तथा षट् कार्योंके जीवोंके रक्षकको कहते हैं।
निर्ग्रन्थ-मुनियोंका चौथा भेद । डंडेसे पानी में खींची गयी लकीरके समान जिनके कर्मोंका उदय स्पष्ट नहीं है तथा जिन्हें एक मुहूर्त बाद ही केवल ज्ञान दर्शन प्राप्त होनेवाले हैं ऐसे क्षीणमोह साधुको निर्ग्रन्थ कहते हैं । इसका साधारण अर्थ ग्रन्थ ( परिग्रह ) हीन साधु
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वर्धमानक-साधारणतया शराब (पुरुबे प्याले ) को बर्द्धमानक कहते हैं | यहां यह शुभ लक्षणों के प्रकरणमें आया है अतएव विशेष
। प्रकारके स्वस्तिकसे तात्पर्य है । Jajn Education international
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