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वराङ्ग चरितम्
जिमेन्द्रसिद्धान्तविधौतबुद्धिर्वाक्कायचित्तत्रयजातशुद्धिः
प्रशान्तभावाहितधर्मवृद्धिः
कश्चिन्मुनिर्धर्ममवोचदित्थम्
फलादमुत्र ।
इह प्रणिर्वतित सत्क्रियस्य जिनेन्द्र गेहस्य सर्वोद्धमत्सद्रति सौख्यवन्ति विमानवर्याणि नरा लभन्ते ॥ ७५ ॥ महामहं यः कुरुते जिनानां सौधं मुदा दृष्टि न भोगवृद्धी' ? | भुक्त्वा चिरं तं नृसुरासुराणां सुखं ततो यास्यति मोक्षसौख्यम् ॥ ७६ ॥ संस्थाप्य यत्नात्प्रतिमा जिनानां नरामराणां सुखमभ्युपैति । क्षीराभिषेकप्रमुखक्रियाभी राज्याभिषेकस्य भवेत्स भागी ॥ ७७ ॥
इसी शुभ अवसर पर किन्हीं मुनिराजने धर्मोपदेश देकर प्रभावना करनेके अभिप्रायसे निम्न व्याख्यान दिया था । जिनेन्द्रदेवके द्वारा उपदिष्ट सिद्धान्तोंका अध्ययन करनेसे उन गुरुवरकी बुद्धि निर्मल हो गयी थी, त्रिगुप्तिका पालन करनेके कारण उनकी मानसिक, वाचनिक तथा कायिक प्रवृत्तियाँ परिशुद्ध ही हुयीं थीं तथा सदा शान्त भावोंके कारण दिन-रात उनका शुभ और शुद्ध उपयोग बढ़ रहा था ॥ ७४ ॥
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जिनपूजादि का फल
जो प्राणी इस धरित्रोपर आदर्श जिनालय बनवाकर सत्य धर्मकी परम्पराको विच्छिन्न होनेसे बचाते हैं; बचाते ही नहीं हैं, अपितु उसका प्रसार करते हैं, वे परम धार्मिक इस संसारको छोड़नेके बाद उन उत्तम विमानोंको प्राप्त करते हैं जो कि समस्त ऋद्धियों, समोचीन प्रेम-प्रपंच तथा अनवरत सुखोंसे परिपूर्ण हैं ।। ७५ ।।
तथा जो धर्म-प्रवण व्यक्ति जिनालयका निर्माण कराके आह्लाद-पूर्वक जिनेन्द्र प्रभुका महामह ( बड़ी पूजा ) कराता है तथा जिसको संसारके भोग विषयों अथवा सम्पत्ति पद आदिकी वृद्धिका मोह नहीं है वह आगामी भवों में दीर्घकाल पर्यन्त मनुष्य गति, देव तथा असुरोंके उत्तमोत्तम भोगोंका उपभोग करके अन्तमें मोक्षरूपी महासुखको ही प्राप्त करता है ॥ ७६ ॥ जिनालयों में जो केवल श्री जिनविम्बकी स्थापना ही कराते हैं वे भी मनुष्य तथा देवगतिके सुखों और अभ्युदयोंकों प्राप्त करते हैं ।
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अभिषेक का फल
तथा जो पुरुष दूध, दक्षुि रस, आदिके द्वारा जिनेन्द्रदेवका पंञ्चामृत अभिषेक कराते हैं वे स्वयं राज्य-अभिषेक आदिके अधिकारी होते हैं ॥ ७७ ॥
१. क. गुढी ।
२. म प्रतिषां ।
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त्रयोविंश:
सर्गः
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