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________________ बराज चरितम् मानि फलान्यथोदुम्बरवृक्षजातेर्ययाप्रमध्यान्तभवानि यानि । रूपाक्षतिस्पर्शसमानि तानि तथैकतो जातिरपि प्रचिन्त्या ॥४॥ ये कौशिकाः काश्यपगौतमाश्च कौण्डिन्यमाण्डव्यवसिष्ठगोत्राः । आत्रेयकोत्साङ्गिरसाः सगार्या मौद्गल्यकात्यायनभार्गवाश्च ॥५॥ गोत्राणि नानाविधजातयश्च मातृस्नुषामैथुनपुत्रभार्याः । वैवाहिक कर्म च वर्णभेदः सर्वाणि चैक्यानि भवन्ति तेषाम् ॥ ६॥ न ब्राह्मणाश्चन्द्रमरीचिशुभ्रा न क्षत्रियाः किंशुकपुष्पगौराः । न चेह वैश्या हरितालतल्याः शूद्रा न चाङ्गारसमानवः ॥७॥ पंचविंशः सर्गः इन सबके कुल कमसे हम देखते हैं कारणासे अनेक ज किसी भी वटके विशाल वृक्षमें बिल्कुल नीचेकी डालसे आरम्भ करके शिखापर्यन्त फल आते हैं। नीचे, ऊपर, बीच, दायी, बाई ओर आदि अनेक भागोंमें उत्पन्न होकर भी उन सबके मन्द लाल रंग, निश्चित गोल आकार, धन तथा मृदु स्पर्श A आदि सब ही गुण समान होते हैं, फलतः उनको एक हो जाति होती है। इसो दृष्टिसे विचार करनेपर मनुष्य जाति भी एक ही प्रतीत होती है ।। ४ ।। विविध वंश हमारे संसारमें कौशिक (विश्वामित्र ) काश्यप, गौतम, कौंडिन्य, माण्डव्य तथा बसिष्ठ गोत्र अत्यन्त प्रसिद्ध हैं । अत्रि (आत्रेय) कुत्स ( कौत्स ) अंगिरस (आंगिरस ) गर्ग ( गार्य ) मुद्रल ( मौद्रल) कात्यायन तथा भृगु ( भार्गव ) ऋषिके बाद इन सबके कुल भी सुविख्यात रहे हैं ।। ५ ॥ इस क्रमसे हम देखते हैं कि माता, पुत्रवधु, साला अथवा मामा, पुत्र, पति-पत्नी आदिके विविध गोत्र ही नहीं हैं, अपितु । उनकी प्रधानताको प्रचलित रखनेको प्रेरणासे अनेक जातियाँ भी दृष्टिगोचर होती हैं। प्रत्येक जाति और गोत्रकी विवाह व्यवस्था पृथक्-पृथक् है, अनेक वर्ण हैं। किन्तु निश्चय दृष्टिसे देखनेपर यही प्रतीत होता है कि उक्त असंख्य वर्गोमें विभक्त मनुष्य जातिकी सब हो प्रवृत्तियाँ एक समान हैं ॥ ६ ॥ सूक्ष्म पर्यवेक्षण करनेपर यही निष्कर्ष निकलता है कि ब्राह्मण पूर्णचन्द्रकी शीतल किरणोंके तुल्य धवल नहीं हैं, क्षत्रियोंका बाह्यरूप तथा आचरण भो किंशुक पुष्पके समान लालिमायुक्त गौर नहीं है, तृतीय वर्गमें विभक्त वैश्योंका आचार-विचार भी हरिताल पुष्पके समान हो नोल-हरे रंगका नहीं है तथा अन्तिमवर्ण शूद्रोंका शरोर तथा मन भी बुझे हुए अंगारके ( कोयले) समान कृष्णवर्ण नहीं ही होता है ।।७।। १. [ रूपाकृति ]। २. क चैत्यानि । चामा [४८८] For Private & Personal Use Only Jain Education international www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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