SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 672
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एकत्रिंशः वराङ्ग परितम् सर्गः सौषधित्वं च महातपस्त्वं क्षीरास्त्रवत्वं च सचारणत्वम् । सुलभ्य लोकातिशयान्गुणौघान्सुखं विजहे भुवि वीतशोकः ॥ ५२ ॥ समाप्तयोगैः परिपक्षविद्यैविहर्तुकामैरविषण्णुभावः। दयात्माभिः साधुगणैरनेकैः क्षिति विजह्रस्वतपोऽभिवृद्धये ॥ ५३ ।। क्षान्त्या च दान्त्या तपसा श्रुतेन ऋद्धचा च वृत्त्या वतभावनाभिः । प्रकाशयामास जिनेश्वराणां स शासनं शासनवत्सलत्वात् ॥ ५४॥ पुराणि राष्ट्राणि मटम्बखेटान् द्रोणीमुखान्खर्वउपत्तनानि । विहृत्य धीमानवसानकाले शनैः प्रपेदे मणिमत्तदेव ।। ५५ ॥ धानीसे पालते थे, उसमें कहीसे भी कोई कमी न आती थो। इन सब योग्यताओं के कारण ही महर्षिको वे लब्धियाँ प्राप्त हुई थी जो कि सबके द्वारा अभिलषणीय हैं ॥ ५१ ।। उन्हें सर्वोषधि ( जिससे सब रोग शान्त हो जाते थे, ) महातपस्त्व (घोरसे घोर तप करनेपर भी श्रान्ति न होना) क्षीरस्रवत्व ( वाणीका दूधको धारकी तरह स्वपर पौष्टिक होना ) चारण (आकाशमें गमन करना) आदि अद्भुत गुणोंको सरलतासे प्राप्त करके वे सारी पृथ्वीपर विहार करते थे। ये लब्धियाँ ऐसो थीं कि संसारमें इनके सदृश सिद्धियां देखी ही नहीं जाती हैं ।। ५२॥ जिन ऋषियोंके आतापन, आदि योग सफल हो चुके थे, समस्त विद्यायें परिपक्व हो गयी थों, दया जिनकी प्रकृति हो चुकी थी, तथा तीर्थस्थानोंके दर्शन और जैनमार्गको प्रभावनाके लिए जो लोग विहार करना चाहते थे, ऐसे अनेक साधुओंके साथ वे देश-देशान्तरोंमें विहार करते थे क्योंकि विहारसे भी तपकी उन्नति ही होती है ॥ ५३ ।। धर्म विहार अपने आचार तथा विचारको सम्पूर्ण शान्ति, कष्टों तथा वाधाओंको उपेक्षा करनेसे प्रकट हुई परम उदारता, अखण्ड तप, सांगोपांग शास्त्रज्ञान, चारण आदि ऋद्धियां, सरल वृत्ति, व्रतोंकी भावनाओं तथा श्री केवली भगवान द्वारा उपदिष्ट जैनशासनकी अगाध प्रीतिके कारण राजर्षिने जैनधर्मको खूब प्रभावना को थी ।। ५४ ।। राजर्षिके संघने अनेक खेड़ों ( ग्राम ) विशाल तथा साधारण नगरोंमें, सामुद्रिक व्यापारके स्थानोंमें धर्म विहार किया था। और जब आयुकर्मका अन्त निकट आ गया था तब वे धोरे-धीरे विहारको समाप्त करते हुए फिर उसी मणिमन्त पर्वतपर 1 जा पहुंचे थे ॥ ५५ ॥ HAIRMAHIPATHAKHeareAMARPAHITHAIP [६३९] Jain Education international For Privale & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy