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वराङ्ग चरितम्
तैः संयतः
सागरवृद्धिमुख्यैर्यथोक्तचारित्रतपः प्रभावैः । संन्यासतस्त्यक्तुमनाः शरीरं वराङ्गासाधुगिरिमारुरोहः ॥ ५६ ॥ आरुह्य तं पर्वतराजमित्थं तपस्विभिः सार्धमुपात्तयोगैः । निर्वाणभूमौ वरदत्तनाम्नः प्रदक्षिणोकृत्य नमश्कार || ५७ ॥ पवित्रचित्तो गतरागबन्धः पत्यङ्कतस्तत्र निषद्य धीमान् । कृताञ्जलिः साधुगणान्समग्रान्क्षमध्वमित्येवमुवाच वाचम् ॥ ५८ ॥ अस्नानकण्व्रतमण्डिताः प्रपण्डितैः पण्डितसाधुवर्ग: । प्रायोपयानं कृतवान्सहैव स पण्डितः पण्डितमृत्युमिच्छन् ॥ ५९ ॥
महर्षि वरांग भूतपूर्वं सेठ मुनि सागरवृद्धि, आदि प्रधान साधुओंके साथ मणिमन्त शैलकी शिखरोंपर इसलिए चले गये थे कि वहाँ शान्त वातावरण में संन्यास पूर्वक प्राणोंको छोड़ें। राजर्षि वरांग जैसे ऊंची कोटिके तपस्वी थे वैसे ही उनके साथी सब ही साधु परम संत थे ।। ५६ ।।
निर्वाण भूमिको ओर
इन सब ही ऋषियोंने योगसाधनामें पूर्ण सिद्धि प्राप्त की थी और उग्र तपस्वी तो वे स्वयं थे ही। पूर्वोक्त क्रमसे इन सबके साथ जब राजर्षि वरांग पर्वतके ऊपर पहुँच गये थे तब वे सब महाराज वरदत्त केवलोकी निर्वाण भूमिकी ओर गये थे । उसके निकट पहुँचकर तीन प्रदक्षिणाएं करनेके उपरान्त उन्होंने श्रीगुरुके चरणों में प्रणाम किया था ।। ५७ ।।
समाधिमरण
राजर्षि सल्लेखना ( संन्यास ) के लिए प्रस्तुत थे, क्योंकि उनका चित्त सर्वथा शुद्ध था, राग आदिके बन्धन तो कभी के नष्ट हो चुके थे । अतएव उन्होंने पद्मासन लगाया था। इसके बाद अत्यन्त विनम्रताके साथ दोनों हाथ जोड़कर परम ज्ञानी राजर्षिने अपने संयम के साथी सब हो तपोधनोंसे प्रार्थना को थी 'आपलोग मुझे क्षमा करें ॥ ५८ ॥
वहाँ उपस्थित सबही साधुआने स्नान, खुजाना, आदि सब प्रकारके अंग संस्कारोंको न करनेका व्रत ले लिया था तो भी सबके शरीरोंसे तपःश्री फूटी पड़ती थी। वे सब ही शास्त्रों के पण्डित तथा आचारके विशेषज्ञ थे । जीवन रहस्यके पण्डित राज को भी पण्डित-मरण ( समाधिमरण ) पूर्वक शरीर त्यागनेकी अभिलाषा थी अतएव अन्य समस्त साधुओंके साथ उन्होंने भी प्रायोपगमन ( जिसमें अपने शरीर की परिचर्या न स्वयं करते हैं और न दूसरोंसे कराते हैं) संन्यास धारण किया था ॥ ५९ ॥
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एकत्रिंशः
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