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________________ एकत्रिंशः बराङ्ग चरितम् आजीवितान्तावशनादिभेदान्संसारसंवर्धनहेतुभूतान् विहाय धीरः स तु मोक्षकाङ्क्षी कृतप्रतिशः सुखमास सत्र ॥६०॥ अभ्यन्तरं बाह्यमपि प्रसंगं विपुच्य संक्लेशपदं सुधीमान् । द्वन्द्वविमुक्तोऽप्रतिकारदेह आसीन्मुनिः संयमधाम्नि तस्मिन् ॥ ६१ ॥ स्वजीविताशां मरणानुरांग विहाय मित्रेषु ममत्वसंज्ञाम् । स चानुबद्धं वनिताकदम्बमभन्मनिमक्तिपथैकचेताः ॥ ६२॥ प्रणम्य पूर्व तमरिष्टनेमिमरिष्टकर्माष्टकपाशमुक्तम् । शेषान् जिनेन्द्रानपि च प्रणम्य यथावदालोच्य मुनिः स तेभ्यः ॥ ६३ ॥ सर्गः भोजन पान आदि सब ही क्रियाएँ आरम्भ तथा परिग्रह साध्य होनेके कारण नूतन बंधके कारण होती हैं, इसी विचारसे उन्होंने जीवन की समाप्ति पर्यन्त इन सबको छोड़ दिया था। इसके अतिरिक्त अन्य सब ही आवश्यक प्रतिज्ञाबोंको भी धारण करके सथा धीर वीरताके साथ मोक्षपर ही ध्यान लगा कर सूख और शान्ति पूर्वक ध्यान मग्न हो गये थे ॥ ६ ॥ समाधिस्थ मुनि उनके ज्ञानकी सीमा न थी। संक्लेश, विक्लेशके मूल स्थान बाह्य तथा आभ्यन्तर परिग्रहोंका उनके पास लवलेश भी न था। लाभ-हानि, सुख-दुख, शुभ-अशुभ आदि द्वन्दोंसे वे परे थे। शारीरिक कष्टका प्रतिकार न करते थे। केवल संयम और ध्यानमय परमधाममें ही विराजमान थे ।। ६१ ।। इस जीवन अथबा अगले जोक्नमें उन्हें किसी प्रकारको अभिलाषा न ओ, मरनेको कोई अभिरुचि न थी, मित्रोंमें ॥ अथवा किसी भी अन्य प्राणी और पदार्थमें उन्हें ममत्व न था तथा जन्म-जन्मान्तरोने चले आये स्त्री पुरुष सम्बन्धके प्रति भो । पूर्ण उदासीन थे। समस्त बन्धनोंको छोड़कर महामुनि वरांगने अपनी समस्त वृत्तियोंको एकमात्र मुक्ति मार्गपर लगा दिया है था ।। ६२॥ तीर्थकर नुति सबसे पहिले उन्होंने यादवपति श्री नेमिनाथ भगवानके चरणों में नतिकी थी जो कि आठों कर्मोके प्रबल पाशको तोड़कर मुक्त हो चुके थे। इसके उपरान्त बाईसवें तीर्थकरसे पहिलेके समस्त जिनेन्द्रोंको प्रणाम किया था। तथा उन्हें ही साक्षी मानकर अपनी निष्पक्ष तथा सख्य आलोचना की थी॥ ६३ ॥ ८२ Jain Education International [६४१] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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