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वराङ्ग चरितम्
...... उदन्मुखस्त्यक्तशरीरचेष्टः प्रसन्नबुद्धिः शमितान्तरात्मा ।
आराधां तां च चतुष्प्रकारामाराधितुं प्रारभतानुसूत्रम् ॥ ६४॥ । ज्ञानाश्रितां दर्शनकारिणों च बहप्रकारोग्रतपःश्रितां च । चारित्रभेदोपनिबन्धिती च प्रचक्रमे कर्तमनुक्रमेण ॥६५॥ काले प्रधानविनयप्रधानस्सन्माननाचिह्नवशप्रयोगैः। ग्रन्थार्थयोरप्युभयप्रयोगः साराधना ज्ञानविधिप्रणीता ॥६६॥ संध्यामहीकम्पतटित्प्रचारपर्वादिनिन्येषु च दुविनीताः । अध्यापनं चाध्ययनं च भूयो व्यानंडिताद्याः प्रतिपत्प्रदोषाः ॥ ६७ ॥
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एकत्रिंशः सर्गः
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इतना करनेके तुरन्त बाद ही उनका अन्तरात्मा पूर्ण शान्त हो गया था, मति पूर्ण प्रबुद्ध हो गयी थी। शारीरिक चेष्टाएं पूर्ण रूपसे बन्द हो गई थीं, और वे ऊपरको मुख करके समाधिस्थ हो गये थे। शास्त्रीय मार्गके अनुसारही उन्होंने अन्तिम समय परम आवश्यक चारों प्रकारकी आराधनाको प्रारम्भ कर दिया था । ६४ ।।
चतुर्विध आराधना सबसे पहिले उन्होंने ज्ञानाराधनाको किया था। इसके आगे क्रमानुसार सम्यकदर्शनको पुष्ट करनेवाली दूसरी आराधना की थी। तीसरी आराधना तपके आश्रित थी क्योंकि उसमें भांति-भांतिके उग्रतपोंका विधान था और अन्तिमें चारित्र आराधनाको लगाया था जिसमें कि चारित्रके सकल भेदों तथा उपभेदोंका विस्तार है ।। ६५ ।।
ज्ञानाराधना जो समयकी अपेक्षा प्रधान हैं अथवा विनयके आचरणमें बढ़े चढ़े हैं, ऐसे लोगोंके साथ सन्मान पूर्वक चिह्नोंसे आत्मवश उपायोंसे केवल ग्रन्थ-पाठ अथवा अर्थका मनन अथना दोनोंका अभ्यास ऐसे दोनों प्रकारके उपायों द्वारा; जो कि ज्ञान अर्जनके साधन हैं, करना ही ज्ञानाराधना है ।। ६६ ।।
संध्याओंकी वेलाओंमें भूकम्प बिजलीकी चमक तथा वज्रपात युक्त कुसमय में तथा अशुभ पर्वोके दिनोंमें अध्ययन नहीं करना चाहिये जो दुविनीत हैं वे ही लोग प्रतिपदा आदि वजित दिनोंमें अध्ययन तथा अध्यापन करते हैं किन्तु विनय विधिके विशेषज्ञ कदापि नहीं करते हैं ॥ ६७ ।।
HIROIROIRALARIAमान्स
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