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| एकत्रिंशः
बराङ्ग चरितम्
जीवादयो मोक्षपदावसाना भूतार्थतो येऽधिगताः पदार्थाः ।। नयप्रमाणानुगतक्रमेण सम्यक्त्वसंज्ञामिह ते लभन्ते ॥ ६८॥ अपोह्य शङ्कां विचिकित्सतां च काङ्क्षां निराकृत्य च वत्सलत्वम् । अमूढतास्थापनाभावने च सदृष्टि लिङ्गान्युपगृहनं च ॥ ६९ ॥ शङ्का च काङ्क्षा मतिविप्लुता च परस्य दृष्टिरपि च प्रशंसा । भूयः सदानापतनस्य सेवा पञ्चातिचाराः खल दर्शनस्य ॥ ७०॥ नित्याविरोध्युत्तमसंयमस्य खेदो महावाक्तनुमानसानाम् । पूर्वाजितक्लेशविनाशहेतुस्तपः समुद्दिष्टमनाविलं च ॥७१ ।।
सर्गः
पत्रकारोने स सातों नयों का सात तत्त्ववाराधना
___सम्ाक्त्वाराधना जीवसे प्रारम्भ करके मोक्ष पर्यन्त जो सात तत्त्व हैं, जीव आदि पदार्थ छह हैं तथा सात तत्त्वोंमें पुण्य पाप मिलनेसे जो पदार्थ होते हैं । इन सबको सातों नयों तथा प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंकी कसौटीपर कसे जानेके बाद इनका जो साक्षात्कार होता है उसे ही शास्त्रकारोंने सम्यक्त्व आराधना नामसे कहा है ।। ६८ ॥
सम्यकदर्शन ( सम्यक्त्व ) को प्रशस्त बनानेके लिए आवश्यक है कि साधक समस्त शंकाओंका समाधान कर ले (निशंकित ), किसी भी प्रकारकी घृणाको अपने अन्तरमें न रखे (निविचिकित्सता), समस्त आकांक्षाओंको छोड़ दे ( निकांक्षितः), धर्म और धर्मियोंपर निःस्वार्थ स्नेह करे ( वात्सलत्व ) विवेक विरुद्ध सिद्धान्त अथवा अस्थाको न माने ( अमूढदृष्टि ), सहमियोंकी क्षम्य भूलोंको गुप्त ही रहने दे ( उपगू हन ) ये सब सम्यक्त्वकी पूर्तिके द्योतक हैं ।। ६९ ।।
वर्शनके अतिचार ___ तत्त्वोंमें शंका करना साधनाके फलस्वरूप किसी अभ्युदयकी आंकाक्षा करना, विवेकको नष्ट होने देना, दूसरोंके सदोष, सिद्धान्तोंकी अनावश्यक प्रशंसा करना तथा जो छह पापके साधक ( अनायतन ) है उनका सेवन करना ये पांचों सम्यक् दर्शनके अतिचारहि ।। ७० ॥
तपाराधना अनादि पूर्व जन्मों में बांधे गये पापकर्मोके नष्ट करने लिए मन, बचन तथा कायको जो अतिशय संयत किया जाता है उसीको तप कहते हैं। इसके करनेसे ऊंचीसे ऊंची कोटिके संयमकी थोड़ीसी विराधना नहीं होती है। आत्माकी क्लेश आदि जन्य मलीनताको यह स्वच्छ करती है तथा उसका आदर्श सदा हो संसारसे ऊपर होता है। परम तपस्वी मुनियोंने ही इस तपके दो भेद किये हैं ।। ७१ ॥
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