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एकत्रिंशः
वराङ्ग चरितम्
कदाचिदन्यैर्मुनिभिः प्रशान्तः श्रुतार्णवान्तर्गतवद्भिरायः । तपोऽधिर्धर्मधुरंधरैश्च सहोपविष्टः सुविशुद्धचेताः ॥ ४० ॥ कदाचिदुन्मार्गनिरञ्जितानां दुर्वृत्तदुर्भाषणतत्पराणाम् । मथ्यामहामोहतमोक्तानां चित्तप्रसादाय दिदेश धर्मम् ॥ ४१ ॥ कल्याणभाजां स कदाचिदीशो भव्यात्मनां भावितसत्कृतीनाम् । सद्धर्ममार्गश्रवणप्रियाणां हितोपदेशं प्रचकार धीमान् ॥ ४२ ॥ कदाचिदन्तर्गतशद्धभावो विचित्रपञ्चेन्द्रियराग'बन्धः । आस्थाय मौनव्रतमप्रकम्प्यस्तस्थौ स रात्रिप्रतिमामभीक्षणम् ॥ ४३ ।।
सर्गः
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राजर्षिका चित्त सब दृष्टियोंसे शुद्ध हो गया था अतएव शुभ तथा शुद्ध संस्कारोंको ग्रहण करनेकी अभिलाषासे वे कभीकभी ऐसे मुनियोंका सत्संग करते थे जो कि मूर्तिमान शान्ति ही थे. शास्त्र रूपी अपार पारावार जिनके द्वारा पार किया गया था, पूज्यताने जिनको स्वयं वरण किया था, धर्ममार्गका चलाना जिनके लिए परम प्रिय था तथा जिनकी तपसिद्धि राजर्षि वरांगसे बहुत अधिक थी ।। ४० ।।
अधमोद्धार ___ कभी-कभी वे उन अज्ञानियोंके हृदयको पवित्र करने के लिए धर्मोपदेश भी देते थे जो कि विपरीत मार्गको मानने, फैलाने तथा पालन करने में लवलीन थे, जिनको कुत्सित आचरण तथा पापमय आचरण करने में ही आनन्द आता था तथा जिनके विवेक तथा आचरण मिथ्यात्व और महामोहके द्वारा बुरी तरहसे ढक लिये गये थे। ४१ ।।
भव्य विकास दूसरे किसी अवसरपर महाज्ञानी वरांग यति भव्य जीवोंका आत्माके अभ्युदय तथा निश्रेयसका उपदेश देते थे, क्योंकि वे जानते थे कि उन लोगोंका शीघ्र अथवा विलम्बसे कल्याण होनेवाला ही था, वे लोग सदा हो शुभ भाव रखते थे और तदनुसार शुभ कर्म ही करते थे। उन भव्य प्राणियोंको जिन धर्मकी कथा सुनते, सुनते कभी भो सन्तोष और शान्ति (तृप्ति) न होती थी।। ४२॥
अन्तर्मुख इन्द्रियाँ राजर्षिकी पाँचों इन्द्रियोंकी प्रवृत्तियोंने एक विचित्र ( संसारसे विपरीत) ही पथ पकड़ लिया था अतएव वे कभी-कभी अकस्मात् ही मौन व्रत धारण कर लेते थे और पूरोको पूरी रात पाषाण निर्मित मूर्तिके समान ध्यानवस्थ बैठे रहते थे। ये सब साधनाएँ धीरे-धीरे उनके अत्यन्त अन्तरंग भावोंको परम पवित्र करती जा रही थीं ।। ४३ ।। १. [बद्धः ] !
मायामायामाचबरसILTRANSLATION
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