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________________ एकत्रिशः बराङ्ग चरितम् क्रोधं ज्वलन्तं कृपया जिगाय मानं जिगायाप्रति मादवेन । मायामजुत्वेन जिगाय धीमान् लोभं विमुक्त्या मतिमान्विजिग्ये ॥ ३६ ॥ शैलाग्रदुर्गान्तरकन्दरेषु नवरगम्येषु च काननेषु । नदीतटस्थद्रुमकोटरेषु वने पितृणामवसत्कदाचित् ॥ ३७ ।। उद्यानमुत्कृष्टगृहान्तराणि तपोधनानां च पुननिवासान् । महाटवीं व्यालमृगाभिजुष्टां कदाचिदेको न्यवसन्नसिंहः ॥ ३८ ॥ सद्धचानचारित्रतप्रापकर्षेः प्रशान्तरागः प्रविधूतपाप्मा। विधिज्ञदेशे निरुपद्रवे च ज्ञानोपयोगं स मुनिश्चकार ॥ ३९ ॥ सर्गः PIPARATHAawe areAIRANAMAHARASTHAN मन, वचन तथा कायकी कुचेष्टाओंसे दिनों-दिन गृहस्थाश्रममें मोटे होते जाते थे ।। ३५ ।। दहकती हुई क्रोधकी ज्वालाको कृपाके द्वारा बुझाया था, मानरूपी शिलाको अभूतपूर्व मार्दव (विचारोंकी कोमलता) से गला दिया था, परम ज्ञानी राजर्षिने मायाकी कुटिलताओंको आर्जव ( सरलता) से सीधा कर दिया था तथा लोभ रूपी कीचड़को विरक्तिकी दाहसे सुखा दिया था ।। ३६ ।।। नाना भांति तप तप साधनामें लीन मुनि वरांग एक समय शैलके शिखरपर ध्यान लगाते थे तो दूसरे समय उसकी गुफाओंमें चले । जाते थे तथा तीसरे समय गहन वनमें जाकर अदृश्य हो जाते थे। उनके निवासस्थान जंगल ऐसे घने होते थे कि मनुष्य उनमें प्रवेश करनेका भी साहस न करते थे। नदीके किनारे खड़े हुए विशाल वृक्षोंके खोखलोंको भी उनका निवासस्थान होनेका सौभाग्य प्राप्त होता था तथा श्मशान भी इसका अपवाद न था ।। ३७ ।। कभी वे किसी बगीचेकी शोभा बढ़ाते थे अथवा लोगोंके द्वारा छोड़े गये खण्डहर महल में जा बैठते थे। तपोधन ऋषियोंकी वासभूमि आश्रम तो उन्हें परम प्रिय थे। किन्तु दूसरे समय वे अकेले ही किसी ऐसे दुर्गम वनमें चले जाते थे जो कि भीषण सापों तथा हिरणोंके राजा सिंहोंसे व्याप्त होते थे ।। ३८ ।। ध्यानकी चरम सीमा उनके धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान ये दोनों शुभ ध्यानोंका, चारित्र तथा तपका इतना अधिक बहुमुख प्रकर्ष हुआ था कि उसके द्वारा समस्त पापोंकी कालिमा धुल गयी थी। और राग आदि भाव शान्त हो गये थे। इसके उपरान्त राजर्षि वरांगने ज्ञानोपयोगकी साधनामें; वहाँ चित्त लगाया था जिस स्थानपर ज्ञानोपयोगकी विधिके विशेषज्ञ रहते थे तथा उपसर्गों या उपद्रवों की आशंका न थी।। ३९ ॥ १.म मार्दनेन। २. [ नरैरगम्येषु ] । UNDELKATARRHEARGAZINEETAILSHIELKायमस्य Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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