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वराङ्ग चरितम्
एकत्रिंशः सर्गः
अज्ञानतुम्बं विषयोरजानि मोहाभिरागप्रतिबद्धनेमिम् । कषाय कृष्णायमतीक्षणधारं संसारचक्रं समनुजिगाय (2) ॥ ३२॥ कषायवृक्षं विषयोरुकक्षं रागाम्बुसंवर्धितवल्लिगुल्मम् । ददाह संसारमहाटवीं तां तपोऽग्निना निष्कलषान्तरात्मा ॥ ३३ ॥ यथा पुराभ्यन्तरदुष्टराशि समूलका [-] विधिना चकार । तथा कषायप्रमुखान् दुरन्तान् धीरः समूलोद्धरणं चकार ।। ३४ ॥ सम्यक्त्वचारित्रतपस्त्रिशुलैानावलीनो निशितैः सुतीक्ष्णै:। मनोवचःकायघनीकृतानि बिभेद मिथ्यापटलानि तानि ।। ३५॥
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प्रखर चमक थी, तथा सम्यक्-चारित्र रूपी प्रभञ्जनके प्रबल वेगसे वह शस्त्र फेंका गया था। यह संसार एक विशाल चक्राव्यूहके समान है ॥ ३१ ॥
संसारचक्र अज्ञान इसकी तुम्बी ( नार जिसमें अर ठोके जाते हैं ) है, इन्द्रियोंके भोग्य पदार्थ हो इस चक्रके अर ( डंडे ) हैं मोहनीय कमसे उत्पन्न सर्वतोमुख सांसारिक राग ही उसकी नेमि (धुरा ) है जिसपर वह घूमता है, तथा अत्यन्त कलुषित क्रोध, आदि • कषायें ही उसकी लोह निर्मित तोक्ष्ण धार है। ऐसे घातक चक्रको भी राजर्षिकी साधनाने निरर्थक कर दिया था ॥ ३२ ॥
संसाराटवी यह अपार संसार अत्यन्त घने तथा दुर्गम बनके समान है, क्रोध आदि कषायोंरूपी पुष्ट तथा विशाल वृक्ष इसमें भरे पड़े हैं, विषय भोग रूपी दुर्गम प्रदेश हैं, राग, विशेषकर प्रेम रूपी जलसे सींचा जानेके कारण सांसारिक उचित तथा अनुचित । सम्बन्धों रूपी वेलें तथा झाड़ियाँ भरी पड़ी हैं। ऐसी भयानक अटवीको भी बरांगयतिने तपस्यारूपी आगसे भस्म कर दिया था। यह अग्नि भी मुनि वरांगके कलुष कालिमा हीन पवित्र आत्मासे भभकी थी ।। ३३ ।।
दुष्टभाव दमन मुनि वरांग जब वरांगराज थे उस समय उन्होंने नगर तथा राष्ट्र में छिपे हुए छद्मवेशधारी सब ही दुष्टोंको दण्डित ही नहीं किया था, अपितु उनकी सन्ततिको मूलसे नष्ट कर दिया था। तपवीर-धीर वरांगराजने दीक्षा ग्रहण करने पर उसी विधिसे सब ही दुष्ट भावों और कर्मोंका, जिनके अगुआ क्रोधादि कषायें थीं जड़से ही उखाड़ कर फेक दिया था ।। ३४ ।।
मिथ्यात्व भेदन राजर्षि वरांग ध्यान में लवलीन रहते थे। इसी अवस्थामें सम्यकदर्शन, सम्यकचारित्र तथा घोर तप रूपी अत्यन्त तीक्ष्ण त्रिशूलसे मिथ्यात्व रूपी अन्धकारके मोटे तथा अभेद्य पटलको उन्होंने अनायास हो भेद दिया था । मिथ्यात्वके ये पतं, जो १.क 'कृष्टा । ___२. [ ° महावनं तत् ।
मान्या-चामाना--मा-मायामामान्य
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