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सर्गः
क्रियाहीनं च यज्ज्ञानं न तु सिद्धि प्रयच्छति । परिपश्यन्यथा पझामुग्धो दग्धो दवाग्निना ॥ ९९॥ ज्ञानहीना क्रिया चापि नात्र कार्य प्रसाधयेत् । नेत्रहीनो यथा धावन्पततिस्त्वनलाचिंषि ॥१०॥
तौ यथा संप्रयुक्तौ त दवाग्निमधिगच्छतः। तथा ज्ञानचरित्राभ्यां संसारान्मुच्यते पुमान ॥१०१॥ बराङ्ग
षड्विंशः चरितम्
पुमानर्थानथाप्रेप्सः संपन्नः साधनैरपि । दैवहीनः क्रियावांस्तु न कर्मफलमश्नते ॥१०२॥ संपन्नो दैवसंपत्त्या साधनैश्च समन्वितः। पुमान्पौरुषहोनस्तु सोऽपि नाथं स गच्छति ॥ १०३ ॥ युक्तौ विचार्यमाणायां य एवोभयवान्भवेत् । स एवेप्सितभागाग्नैर्दण्डोऽरण्य इवोद्भवेत् ॥ १०४॥
किसी आत्माको परिपूर्ण ज्ञानकी प्राप्ति हो चुकी हो तो भी यदि उसमें किसी भी प्रकार चारित्र नहीं है, तो उसे कभी भी सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती है। जैसा कि प्रसिद्ध हो है कि विचारा लंगड़ा पुरुष जो कि आती हुई दावाग्निको स्पष्ट देख कर भी पेरोंसे विकल होनेके कारण उसीमें जल कर भस्म हो गया था ।। ९९ ।।।
इसी विधिसे यदि किसी आदमीका आचरण तो बहुत विस्तृत तथा निर्दोष है किन्तु ज्ञानसे दर्श-स्पर्श भी नहीं है, तो उसे भी सिद्धि न मिलेगी। उसकी वही अवस्था होगी जो कि उस अन्धेकी होती है जो आगके तापको अनुभव करके इधर-उधर भागता है और आगकी लपटमें जा पड़ता है ।। १०० ॥
अंध-पंग मिलन यदि किसी संयोगवश आँखों वाला लंगड़ा और पैरों वाला अन्धा ये दोनों एक दूसरेसे मिल जायें तो वे सम्मिलित प्रयत्न करके दावाग्निसे बच कर प्राण-रक्षा कर ही लेते हैं। इसी विधिसे जब आत्मा ज्ञान तथा चारित्र दोनोंको ही प्राप्त कर लेता है तो वह विशेष प्रयत्नके बिना ही संसार दावानलसे पार हो जाता है ।। १०१ ।।
दैव-पुरुषार्थ संसारमें देखा जाता है कि कोई मनुष्य किन्हीं कार्योंको करना चाहता है, उन कार्योंकी सफलताके लिए उपयोगी सब साधनोंको भी बह जुटा लेता है । जब क्रमशः सब तैयारियां हो लेती हैं तो वह कार्यको सफल करनेके लिए पूर्ण प्रयत्न करता है। तो भी उसके हाथ असफलता ही लगती है क्योंकि दैव (पूर्वकृत शुभ-अशुभ कर्म ) उसके अनुकूल नहीं होते हैं ।। १०२।।।
इसका दूसरा भी पक्ष होता है, कोई मनुष्य कार्यकी सिद्धिके लिए आवश्यक समस्त साधन सामग्रीसे सुसज्जित है, पूर्वकृत शुभकर्मोंका परिणाम भी सर्वथा उसके अनुकल है, तो भी उसको अपने अभीष्ट कार्यमें सफलता केवल इसलिए नहीं मिलती। है कि उसने पुरुषार्थको भलीभांति नहीं किया था ।। १०३ ॥
इन दोनों दृष्टान्तोंको जब युक्तिपूर्वक विचारते हैं तो इसो निष्कर्षपर आते हैं कि जिस पुरुषमें अनुकूल दैव तथा उपयुक्त पुरुषार्थ ये दोनों बातें होंगो वह आदर्श पुरुष निश्चयसे अपने सब ही अभीष्ट कार्योंमें सफलता प्राप्त करेगा। वैसा ही [५२९] समझिये जैसा कि उस व्यक्तिका हाल होता है जो ठीक (शमी) लकड़ीके डंडोंको रगण कर वनमें भी आग उत्पन्न करा
लेता है ।। १०४॥
११.[पङगुमुग्धो]। २. [पतितस्त्वनलाचिषि ]। ३. क देवहीनक्रिया । ४. [ भागग्नेदंण्डो ] । Jain Education international ६७
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