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वराङ्ग चरितम्
इसी प्रकार जिस पुरुषने मन, वचन तथा कायकी चेष्टाओंको वशमें कर लिया है, इन्द्रियोंको संयत कर दिया है तथा प्रति समय चारित्रके पालन में प्रयत्नशील है, वह पुरुषार्थी आत्मा समस्त संकल्प विकल्पोंको समूल नष्ट करके उस ध्रुव तथा for पदको पाता है जिसका मधुर नाम निर्वाण है ॥ १०५ ॥
एवं जने' क्रियायुक्तस्त्रिगुप्तः संयतेन्द्रियः । निर्धूय सर्वसंकल्पान् ध्रुवमेत्यचलं पदम् ॥ १०५ ॥ द्रव्याणि षट् च गतिभेदसमन्वितानि युक्त्या प्रमाणनयमार्गविकल्पितानि ।
तान्येव तस्वपदवीसमुपाश्रितानि स्वैलक्षणैरभिहितानि नरेश्वरेण ॥ १०६ ॥ कालस्य हानिमय वृद्धिमपि प्रसंख्यं संज्ञां च तस्य खलु भारतवर्षभूमौ । तस्यां तु कारणमहापुरुषांश्च तेषां नामादि विस्तर विहीनमतोऽभिधास्ये ।। १०७ ॥ इति धर्मंकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भे वराङ्गचरिताश्रिते द्रव्यादिकालो नाम षड्विंशतितमः सर्गः ।
उपसंहार
सम्राट वरांगने जीव, आदि छहों द्रव्योंको उनके स्वरूप, परिणाम तथा भेदोंके सहित समझाया था । प्रमाण तथा नयके स्वरूप, उनके द्वारा पदार्थों को परीक्षा करनेकी शैलो आदि प्रमाणोंके स्वरूपको अकाट्य युक्तियों द्वारा श्रोताओंके हृदयमें बैठा दिया था। प्रमाणनय, आदि किस अवस्था में तत्त्वपदको पाकर मोक्षमार्गकी दिशामें ले जाते हैं तथा रत्ननकी अपनी अपनी परिभाषा तथा योग्यता क्या है इन सब विषयोंका विशद विवेचन किया था ।। १०६ ।।
वाच्य विषय
इसके आगे बतायेंगे कि भरतक्षेत्र भूमिपर किस प्रकार काल परिवर्तन होता है उसके परिवर्तनमें कौनसे महापुरुषों ( शलाका पुरुषों) का विशेष हाथ रहता है । कालोंके साम क्या हैं, उनमें किस प्रकार आयु, बल, ज्ञान, आदिकी हानि होती है। तथा इन्ही गुणोंकी वृद्धिको भी क्या प्रक्रिया है । शलाका पुरुषोंके नाम तथा चरित्र क्या थे । इतना अवश्य समझ लेना चाहिये कि ये सब वर्णन विस्तारसे नहीं हो सकेंगे ॥ १०७ ॥
१. [ जनी ] ।
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चारों वर्ग सलन्वित, सरल शब्द - अर्थ - रचनामय वरांगचरित नामक धर्मकथामें द्रव्यादिकाल नाम षड़विशतितम सगँ समाप्त |
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षड्विंश: सर्गः
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