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बराङ्ग
चरितम्
सप्तविक -सर्गः
सप्तविंशः सर्गः ततो नरेन्द्रः प्रथमानुयोगं प्रारब्धवान्संसदि वक्तुमुच्चैः । सभा पुनस्तस्य वचोऽनुरूपं शुश्रूषयामावहिता बभूव ॥१॥ कालायुषी क्षेत्रमतो जिनांश्च जिनान्तरं चक्रभृतस्तथैव । प्रख्यातवंशो बलवासुदेवी तयोश्च शत्रूश्च निशामयध्वम् ॥२॥ कालं पुनर्योगविभागमेति निगद्यतेऽसौ समयो विधिः। संख्याव्यतीताः समयाश्च दृष्टा एका बुधैः सावलिकेति तेऽपि ॥ ३ ॥ शब्दः स ऐके गणनाव्यतीतास्ताः सप्तभिस्तोकमुदाहरन्ति । स्तोकर्लवः सप्तभिरेव चैकस्तेनाधिकास्त्रिशदथाष्टयुक्ताः ॥४॥
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सप्तविंश सर्ग गत अध्यायमें छह द्रव्योंका वर्णन समाप्त करनेके पश्चात्, सम्राट वरांगने अपनी राजसभामें प्रथमानुयोग ( शलाका पुरुषोंका जीवन चरित्र तथा अन्य पुराण और धर्म कथाओं) का व्याख्यान प्रारम्भ किया था। उनका स्वर उच्च तथा स्पष्ट था। उनके वचन तथा उत्साहके अनुरूप ही राजसभाकी श्रद्धा तथा भाव थे, फलतः शास्त्र सुननेकी इच्छासे प्रेरित होकर वहाँ पर उपस्थित सब ही श्रोता सर्वथा सावधान और चैतन्य हो गये थे ॥१।
सम्राटने सभाको सम्बोधन करते हुए कहा था कि आप लोग इस जगतके क्षेत्र-विभाग, उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी आदि काल-परावर्तन; इनमें होने वाले युगप्रवर्तक तीर्थंकर, एक तीर्थंकरके निर्वाणसे लेकर दूसरे तीर्थंकर जन्म पर्यन्त पड़े सामयिक अन्तराल, चक्रवर्ती, बल ( बलभद्र ) तथा वसुदेव जिनके कुल इस धरणोपर प्रसिद्ध थे तथा इन सब लोगोंके प्रबल प्रतिद्वन्दियोंके वर्णनको ध्यानसे सुनें ।। २॥
उत्थानिक यद्यपि रत्नोंकी राशिमें पड़े प्रत्येक रत्नके समान कालका प्रत्येक क्षण अलग-अलग है तो भी व्यवहारिक दृष्टिसे इनके भी विभाग किये गये हैं। इस विभाजनके विशेषज्ञोंने इसके लिए समय संज्ञाका भी प्रयोग किया है। जब इतने अधिक समय बीत
जाते हैं कि उनको गिनना कठिन हो जाता है, तो समयके प्रमाणकी व्यवस्था करने वाले विद्वान उस अन्तरालको 'आवलिका' ! ।। अथवा आवली संज्ञा देते हैं ॥३॥
किन्हीं आचार्योंका यह भी मत है कि गणनासे परे (असंख्यात ) आवलियोंके बीत जानेपर एक शब्द होता है । साधारणतया सात आवली प्रमाण समय बीतनेपर एक स्तोक होता है। सात 'स्तोक' समय बीतने पर एक 'लव' होता है और इस ।
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