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________________ बराङ्ग चरितम् HARASHTRACHERetenyeaweeyam एतन्मृत्युजराजातिसंततातभेषजम् । निर्वाणस्वास्थ्यसंधानं पवित्र परमं शिवम् ॥ ९३ ॥ त्रयाणां समवायेन मुक्तिमार्गः प्रशस्यते । त्रिविष्टपैकदृष्टान्तात्प्रत्येकं न प्रसिध्यति ।। ९४ ॥ तथापि तेषु सम्यक्त्वं श्रेष्ठमित्यभिधीयते। महीसलिलजीवानां सति योगे तु जीववत् ॥ ९५॥ षड्विंशा दर्शनाभ्रष्ट एवानुभ्रष्ट इत्यभिधीयते। न हि चारित्रविभ्रष्टो भ्रष्ट इत्युच्यते बुधैः॥९६॥ महता तपसा युक्तो मिथ्यादृष्टिरसंयतः । तस्य सर्वज्ञसंदृष्ट्या संसारोऽनन्त उच्यते ॥ ९७॥ सम्यग्दृष्टेस्तु संसारो यद्युत्कृष्टो भवेत्पुनः। सागराणां तु षट्षष्टिः नातः परतरो भवेत् ॥ ९८ ॥ ये तोनों ही मिले हुए मोक्षप्राप्तिके परम उपाय हैं। सम्यक्-दर्शन, सम्यक्-ज्ञान तथा सम्यक्-चारित्र ये तीनों ही 'रत्नत्रय' कहलाते हैं। यह रत्नत्रय तो स्वर्ग तथा मोक्षकी सीढ़ियोंके समान हैं ।। ९२॥ यह रत्नत्रय जन्म, जरा, मरणके अनादि चक्रस्वरूप सांसारिक भयोंकी अचूक औषधि है तथा मोक्षरूपी परिपूर्ण स्वास्थ (स्व-आत्ममें स्थ-स्थिर अर्थात् आत्मास्वरूपमें लोन होना ) को देनेवाले हैं । ये तीनों परम पवित्र हैं तथा आत्माके कल्याणकारी या मोक्ष हैं । ९३॥ रत्नत्रय सम्यक्-दर्शन, आदि तीनों रत्न जब किसी एक आत्मामें इकट्ठे हो जाते हैं, उस समय ही ये मोक्षके सीधे तथा शुभ ॥ मार्ग बन जाते हैं। तीनों लोकोंके; एक दृष्टान्तके समान ही इनमें से एक, एकको प्राप्त करनेसे मुक्तिकी प्राप्ति नहीं होतो है ।। ९४ ॥ तो भी इन तीनोंमें सम्यक्-दर्शनको बाकी दोनोंसे श्रेष्ठ बताया है क्योंकि किसी पदार्थ ( वृक्ष ) की उत्पत्तिके लिये जीव ( वीज ) पृथ्वी तथा, जल तीनों आवश्यक होते हैं, तो भो इन तीनोंमें दर्शन ( वीज ) हो प्रधान होता है क्योंकि उसके विना शेष दो भी व्यर्थ (पौधा नहीं) हो जाते हैं ।। ९५ ।। ___दर्शनकी प्रधानता जब कोई आत्मा सम्यकदर्शनमें दोष लाकर उससे पतित हो जाता है तो उसे वास्तवमें भृष्ट कहा जाता है। किन्तु यदि कोई आत्मा केवल चारित्र या ज्ञान से भृष्ट हो जाता है तो शास्त्र अथवा आचार्यगण उसे भ्रष्ट नहीं मानते हैं ।। ९६ ॥ कोई जीव अत्यन्त कठोर तथा विशाल तपस्याको साधनामें सफल हो चुका है किन्तु उसे सम्यकदर्शनकी सिद्धि नहीं हई है, तो त्रिकाल तथा त्रिलोक के ज्ञाता सर्वज्ञकी दृष्टि में वह असंयमी ही है तथा उसका संसार भ्रमण उतना तप करनेके बाद भी अनन्तकाल पर्यन्त चलनेवाला है ।। ९७॥ [५२८] किन्तु जिस चारित्रहीन असंयत पुरुषको सम्यक्दर्शनकी प्राप्ति हो चुको है उसको यदि अधिकसे अधिक ही इस संसारमें भ्रमण करना पड़ा तो भो उसे यहाँपर छ्यासठ सागर प्रमाण समय पर्यन्त ही रहना पड़ेगा, इससे अधिक वह किसी भी अवस्था में । में इस संसारमें नहीं रह सकता है ।। ९८ ॥ a www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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