________________
बराज
पितपुत्रादिसंबन्ध' एकस्मिन्पुरुष यथा। न हो कस्य पितृत्वेन सर्वेषामपिता भवेत् ॥ ८७॥ चतुर्विधस्वभावोऽयं पर्यायो वस्तुनः स च । प्रमेयत्वं हि हेतुः स्याद्धटो दृष्टान्त उच्यते ॥॥ तस्मात्तत्त्वपरीक्षायामिदमेव समन्जसम् । स्वायंभुवं प्रवचनं विद्वद्धिः समुपासितम् ॥ ८९ ॥ मिथ्यावादसमहस्य भद्रं जैनस्य धर्मतः । अमतः स्वादुतः पुंसां सुगमश्च सुमेधसाम् ॥ ९०॥ श्रद्धां कुर्वन्ति ये तस्मिन्नेधन्ते भावतश्च ये। ते सम्यदृष्टयः प्रोक्ताः प्रत्ययं ये च कुर्वते ॥ ९१॥ तन्मले ज्ञानचारित्रे मक्तेरेतानि साधनम् । रत्नत्रयमिदं प्रोक्तं सोपानं स्वर्गमोक्षयोः ॥ ९२॥
षड्विंशः
सर्गः
चरितम्
एक ही मनुष्य किसीका पुत्र होता है तथा दूसरेका पिता होता है, इस विधिसे उसके अनेक व्यक्तियोंको अपेक्षा अनेक दि सम्बन्ध होते हैं । ऐसा तो कभी नहीं देखा गया है कि किसी एक आदमीका पिता होनेके कारण उसका सारे संसारके व्यक्तियों का पिता हो और उसका कोई दूसरा सम्बन्ध (पुत्र, भाई, आदि ) ही न हो ।। ८७ ।।
सापेक्षता वाद प्रत्येक वस्तुके स्वभावको स्थूल रूपसे चार भागोंमें विभक्त कर सकते हैं, यही स्वभाव-भेद पर्याय भी कहा जाता है। । इन सबको सिद्ध करनेके लिये प्रमेयत्व (प्रमाणके द्वारा जानने योग्य होना) हेतु होता है तथा साक्षात् देखे गये घट, आदि उदाहरण होते हैं ।। ८८ ॥
यही कारण है कि तत्त्व मीमांसाके समय स्याद्वाद ही अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होता है, तथा सत्यज्ञानको कराता है। इस स्याद्वादका उपदेश उन तीर्थंकरोंने दिया था जो अपनी उग्र साधनाके द्वारा पूर्णताको प्राप्त कर सके थे 'स्वयंभू' इस संज्ञाके वास्तविक अधिकारी हो सके थे ।। ८९ ।। ।
यही कारण है कि सब ही दर्शनके उदार विचारकोंने इसे अपनाया है। आठों कर्मों के विजेता केवली जिनेन्द्रोंके धर्म का अनुसरण करनेसे ही एकान्त-ग्राही मिथ्यामतोंके समूहका भी उद्वार हो जाता है। इसका आश्रय लेकर मनुष्य मरणके परे हो जाते हैं, यह कोई क्लिष्ट मार्ग नहीं है अपितु स्वाभाविक होनेके कारण विवेको पुरुषोंके लिये अत्यन्त सरल है ।।९० ।।
माहात्म्य जो विवेकी पुरुष स्याद्वादपर आस्था करते हैं तथा अन्तरात्मासे उसको ग्रहण करके दिनों-दिन ज्ञानको विकसित करते हैं, वेही सन्मार्ग-गामी जीव सम्यक्-दृष्टी संज्ञाको प्राप्त करते हैं, क्योंकि वे पदार्थ साक्षात्कारके इस प्रधान उपाय पर आस्था करते हैं ।। ९१ ॥
स्याद्वाद रसायन सत्य श्रद्धा होते ही मिथ्याज्ञान सम्यक ज्ञान हो जाता है तथा कदाचार अथवा अनाचार हो सम्यक्-चारित्र हो जाता है १.क संबन्ध । २. [ धर्मकः ]। ३. [ स्यादतः । ४. म तस्मिन्नेदं ते ।।
[५२७]
सप
Jain Education international
For Privale & Personal use only
www.jainelibrary.org