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वराङ्ग चरितम्
नृकुञ्जराः केचिवहीनसत्त्वाः पादप्रवेशप्रथितान्त्रमालाः । विरेजिरे युद्धभुवि भ्रमन्तः पाशावबद्धा इव मत्तनागाः ।। ५७ ।। केचिन्नृसिंहा रुधिराक्तशस्त्राः परप्रहारप्रभवोरुवीर्याः । विरेजुराजावतिघोररूपा घ्नन्तो गजेन्द्रानिव दृप्तसिंहाः ॥ ५८ ॥ स्वान्त्राणि केचिज्जठरघृतानि' निगृह्य वामाङ्गकरैर्नृ शूराः ।
संगृह्य गखान्यथ दक्षिणैस्तु विरेजुराजाविव राक्षमास्ते ।। ५९ ।। अन्तः प्रक्रोपात्परिवृत्तनेत्राः केचित्राघातनिरस्तजीवाः ।
निः पीड्य दन्तैर्दशनच्छदांस्ते निपेतुरुर्व्या तु सहस्रकोटधा ॥ ६० ॥
रणरति
कुछ श्रेष्ठ योद्धा जिनको शक्ति और पराक्रम थोड़ा भी कम न हुआ था वे युद्धक्षेत्रमें दौड़-दौड़कर आक्रमण कर रहे थे । इसी उपक्रममें उनके पैरोंमें मृतकों की आँतँ फँस गयी थीं तो भी उनकी गतिमें कोई अन्तर न आया था । अतएव वे ऐसे प्रतीत होते थे मानो पाशसे बंधे हुए मत्त हाथी ही रणभूमिमें इधर-उधर दौड़ रहे हैं ॥ ५७ ॥
कितने ही ऐसे पुरुषसिंह ( श्रेष्ठ पुरुष ) थे जिनके शस्त्रास्त्र शत्रुके रक्त से लथपथ हो गये थे तथा शत्रुओंपर प्रहार करते-करते थकनेकी अपेक्षा उनका बलवीर्य और बढ़ सा गया था फलतः वे शत्रुओंको मारनेमें ही लोन थे । उनका यह घोररूप देखकर उन सिंहोंका स्मरण हो आता था जो क्रोधके आवेशमें मत्त गजोंपर आक्रमण करते हैं ॥ ५८ ॥
शस्त्रोंकी मारसे किन्हीं - किन्हीं योद्धाओंके पेटकी आंतें बाहर निकल आयी थीं। किन्तु उन शूरोंने उन्हें बायें हाथसे दबा लिया था और दायें हाथसे दृढ़तापूर्वक खड्ग पकड़ कर वे जब प्रहार करते थे तो साक्षात् राक्षसोंकी भाँति भयंकर दिखते थे ।। ५९ ।।
हार्दिक क्रोधका आवेश बढ़ जानेके कारण कितने ही योद्धाओंकी आँखें घूम रही थीं, इस पर भी जब शत्रुका निर्दय प्रहार हुआ तो उनके प्राण पखेरू भी उड़से ही गये थे । तथापि अन्तमें जब सहस्रकोटी ( हजार दातोंकी गदा ) का प्रहार पड़ा तो वीरतापूर्वक व्यथाको सहनेके लिए हो उन्होंने ओठोंको दाँतोंसे चबा लिया था और आह निकाले बिना ही धराशायी हो गये थे ।। ६० ।।
१. मतानि ।
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सप्तदशः
सर्गः
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