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बराङ्ग चरितम्
उरस्सु केचित्समरप्रियाणां निहत्य पूर्व पृथुसर्वलोहै। नि:कष्य यातांबरयानबाध्य' तैरेव तांस्तीवरुषः प्रजहः ॥ ६१॥ परस्पराघातविघट्टितास्त्राः परस्परं पीनभुजेनिपीड्य । निपात्य भूमावतिरोषरौद्राः क्रमेण चक्रुस्तदरोत्तरांस्तान् ॥ ६२॥ खड्गैः प्रहन्तनितरेतरस्य विलोक्य वैराग्यमयुः सुभीताः। रागः समो मध्यमधीषु जातः शौर्यान्वितेषु द्विगुणो बभूव ॥ ६३ ॥ लब्धप्रणाः श्रान्ततमा रुदन्तस्तृषादिताः शीतलजलाभिलाषाः । लज्जां विहायैव जिजीविषन्तः प्रदुद्रुवुः साध्वससन्नचित्ताः ॥ ६४॥
सप्तदशः सर्गः
रणकला प्रदर्शन समरके रागमें मस्त कितने ही योद्धाओंके वक्षस्थलपर कोई-कोई शत्रु सर्वलोह (पूराका पूरा लोहेसे बना अस्त्र) आयुधसे पहिले प्रबल प्रहार करते थे। किन्तु जब वे आगेको बढ़ने लगते थे तब उसी सर्वलोह आयुधको निकाल कर वे उन्हें 1 रोक लेते थे और उसीका प्रहार करके मार डालते थे ॥ ६१ ।।
आपसमें सतत प्रहार करते रहनेपर जब भटोंके अस्त्र टूट जाते थे तो एक दूसरेको अपनी-अपनी पुष्ट तथा बलिष्ठ भुजाओंसे दबाकर पृथ्वापर पटक देते थे। क्रोधसे अत्यन्त उग्र होकर वे लड़ते-लड़ते अपने प्रतिद्वन्दियोंके पैर ऊपरकी ओर और शिरको नीचे कर देते थे। ६२ ॥
रणदर्शनकी प्रतिक्रिया जो लोग स्वभावसे भीरु और दुर्बल थे वे योद्धाओंको खड्गों द्वारा आपसमें जुझता देखकर भयसे विह्वल हो गये थे। जो न तो भीरु थे और न प्रथम श्रेणीके योद्धा थे उन्हें संग्राम करनेवालोंके प्रति समान अनुराग हो गया था। तथा जो स्वयं शूरवीर थे उनका उत्साह दुगुना हो गया था ।। ६३ ।
आतंक तथा भयसे जिनके चित्त सहज ही सन्न हो रहे थे, वे लोग एक घाव लगते ही अत्यन्त शिथिल हो गये थे, कष्टसे रोते थे, प्याससे उनके गले सूख गये थे, शीतल जल पीनेके लिए वे आतुर थे, किसी भी प्रकार जीवित रहना चाहते थे अथवा लोकलाजको छोड़कर वे भागे जा रहे थे ॥ ६४ ।।
। १. [ यातांस्त्वरयानुबाध्य ] ।
२. [ चक्रुस्त्वघरोत्तरांस्तान् ।
३. क बद्धवणाः ।
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