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________________ वराङ्ग चरितस् शस्त्रबभिदुर्नृशंसाः ॥ ५३ ॥ परेषामभिसंस्कृतानि । शिरांस्यला' सूत्पलवत्प्रसह्य ॥ ५४ ॥ केचित्पुरापि प्रतिबद्धवैराः पुर्नावशेषेण हि युद्धशौण्डाः । संज्ञाभिराहूय परस्परस्य गात्राणि केचित्पुनर्लोहनिबद्धदण्डे चण्डाः एक प्रहारेस्तु दृढैरभिन्दन् केचित्प्रभिन्नाः परशुप्रहारैः समुद्गरैस्तीक्ष्णमुखेश्च टङ्कैः । परे गदाघातविचूर्णिताङ्गास्तदैव जग्मुः परलोकमुप्राः ॥ ५५ ॥ तेषां मवोद्भिन्नगजाकृतीनां रणप्रियाणां कृतपौरुषाणाम् । शूरव्रणालङ्कृतभासुराणां सुसंहारतुमला बभूव ॥ ५६ ॥ कितने ही ऐसे रणवांकुरे थे जो इस युद्ध के पहिलेसे ही एक दूसरेके पक्के वैरी थे, फिर इस समय तो कहना ही क्या था? वे परस्परमें नामसे सम्बोधन करके अपने शत्रु को उसका नाम लेकर अपने सामने बुलाते थे और उसे शस्त्रोंके द्वारा निर्दयतापूर्वक छेद डालते थे ॥ ५३ ॥ युद्ध की भीषणता कुछ क्रुद्ध तथा उग्र भटोंके दण्डे लोहेकी मूठसे मढ़े थे । ये लोग अपने शत्रुओंके विधिपूर्वक शिरस्त्राण आदिके द्वारा सुरक्षित शिर पर एक ऐसा दृढ़ तथा सटीक प्रहार करते थे कि उनके शिर एक ही चोटमें वैसे ही फट जाते थे जैसे तुम्बी पत्थर की चोटसे खंड-खंड हो जाती है ॥ ५४ ॥ तीक्ष्ण परशु प्रहारोंसे अनेक योद्धाओंके शरीर फट गये थे, कुछ लोग भारी मुद्गरों तथा तेज धारयुक्त टंकोंको मारसे छिन्न-भिन्न हो गये थे, अन्य कितने ही गदाकी सतत मारसे पिस गये थे और वे सब तेजस्वी देखते-देखते इस लोकसे प्रयाण कर गये थे ॥ ५५ ॥ इन समस्त योद्धाओंको रण अत्यन्त प्रिय था, अतएव उसकी सफलता के लिये इन्होंने परिपूर्ण पुरुषार्थं किया था । अपने अहंकार उद्रेक तथा रक्त आदि लग जानेके कारण उनकी आकृतियाँ मदबहाते हाथियोंके समान हो गयी थीं। वीरोंके उपयुक्त घावोंके द्वारा उनके पूरे शरीर भूषित हो गये थे, तो भी उनके चलते हुए दृढ़ तथा सटीक प्रहार और भी तीव्र और भयानक होते जा रहे थे ॥ ५६ ॥ १. [ शिरांस्यलाबूत्पल° ] ४१ Jain Education International २. [ बभूवुः ] । For Private Personal Use Only सप्तदधाः सर्गः [ ३२१] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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