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वराङ्ग चरितम्
भूशैलतोय विविधाकरजातपण्यं "
मुक्ताप्रवालतपनीयमनेकभेदम् । यद्यच्च दुर्लभतमं परराजधान्यां तस्मिन्पुरे प्रतिवसत्सुलभं च बस्तु ॥ ३९ ॥ न्यायाजितद्रविणतेक कुटुम्ब पूर्ण सर्व सहितं परमद्धयुक्तम् ।
उद्घाटितापणमुखेषु निरन्तरेषु नक्तं दिवं क्रयपरिक्रमसक्तमर्त्यम् ॥ ४० ॥ नेकप्रकारम हिमोत्सव चैत्यपूजादानक्रियास्नपनपुण्यविवाहसंग:
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अन्योन्यगेहगमनागमनो जनौघस्तस्मिन्पुरे प्रतिदिनं ववृधे यथावत् ॥ ४१ ॥ शब्दार्थहेतुगणितादिविशेषयुक्ता ज्ञानप्रभावितिमिरीकृतधीमनस्काः । सद्धर्मशास्त्रकुशलाः सुलभा मनुष्या यत्राररज्जुरधिकं सततप्रमोदाः ।। ४२ ।।
मकानों के सामने दुर्वायुक्त प्रदेश बहुत दूरतक फैले थे तथा इनपर भी बलिमें चढ़ायी गयी रंगबिरंगो सामग्रियाँ और फूल फैले रहते थे ॥ ३८ ॥
पृथ्वी, पहाड़, समुद्र तथा नाना प्रकारकी खनिज क्रय-विक्रयकी वस्तुएँ अर्थात् प्रकार प्रकारके मूंगा, मोती, हीरा, सब जातिका सोना आदि पण्य, जो कि दूसरे देशोंकी राजधानियोंके बाजारोंमें प्रयत्न करनेपर भी न मिलते थे, वे ही सब वस्तुएँ उत्तमपुरके बाजारोंमें मारी मारी फिरती थीं ।। ३९ ।।
इस नगर के निवासी ग्राहकोंसे ठसाठस भरे तथा आठों पहरके लिये खुले हुए बाजारोंमें दिनरात क्रय और विक्रयमें तल्लीन रहते थे। लेकिन सब ही नागरिकोंकी सम्पत्ति न्यायोपार्जित थी। किसीके भी घरमें अलगाव न होता था और सबके कुटुम्बमें बड़े-बूढ़ोंसे लेकर छोटेतक जीवित थे। हर ऋतु में सबको सब ऋतुओंके सुख आसानीसे प्राप्त थे और सम्पत्ति और बिभव तो मानों उनके अनुचर ही थे ॥ ४० ॥
इस नगर में प्रतिदिन ही सर्वसाधारण के लिए लाभदायक विविध प्रकारके विशेष कार्य, इन्द्रध्वज आदि जिन-पूजा, विपुल दान-कर्म, जिनेन्द्रदेवका पञ्चामृत महाभिषेक, धर्म-विवाह, उत्सव, आदि कार्यं आगमके अनुकूल विधिसे होते रहते थे । इन प्रसंगों पर नागरिक एक-दूसरे के घर आया-जाया करते थे तथा आल्हाद और प्रसन्नता में दिन दुने और रात चौगुने बढ़ते जाते थे ॥ ४१ ॥
यह उत्तमपुरका ही सौभाग्य था कि वहाँपर व्याकरण, काव्य, न्याय, गणित, अर्थशास्त्र, आदि विषयोंके ऐसे प्रकाण्ड पण्डित मौजूद थे जो अपने विमल ज्ञानके प्रकाशसे वहाँ के निवासियोंका बौद्धिक और मानसिक अन्धकार ( अज्ञान ) नष्ट कर
१. पुण्यं । २. क प्रभावितमिरी, म प्रभावतिमिरी ।
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प्रथमः
सर्गः
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