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________________ वराङ्ग चरितम् वृद्धाः समेषु तरुणाश्च गुरूपदेशे वेश्याङ्गनाः' सुललिताः समदा युवानः । त्यागेष्वथाजितधनाः प्रमदाः प्रियेषु वस्त्वन्तरे रतिमुपेयुरथानुरूपम् ॥ ४३ ॥ पाषण्डिशिल्पिबहुवर्णजनातिकोणं रत्नापगाजलनिधिः सुरलोकल्पम् । प्रज्ञातिमग्धधनिनिर्धनसज्जनेष्टं चोरारिमारिपरचक्रकथा न तत्र॥४४॥ नीरोगशोकनिरुपद्रवनिर्भयत्वादस्मिञ्जनः सुरसुखं । मनसाऽवमेने । कि वा पुरस्य बहवर्णनया नराणामिष्टेन्द्रियार्थपरिभोगसुखावहस्य ॥४५॥ तस्येश्वरः प्रथितभोजकुलप्रसूतो धर्मार्थकामनिपुणो विनिगूढमन्त्रः। न्यायेन लोकपरिपालनसक्तबुद्धिः श्रीधर्मसेन इति भूपतिरास नाम्ना ॥ ४६॥ प्रथमः सर्गः देते थे। सच्चे धर्मशास्त्रके मर्मज्ञ पुरुष तो उस नगरमें अत्यन्त सुलभ थे। सदा प्रमुदित रहनेवाली यह विद्वान मण्डली वहाँ अलग ही चमकती थी ।। ४२ ॥ उस नगरके वृद्ध पुरुष अपनी बराबरी के लोगोंके साथ उठते बैठते थे। किशोर और तरुण पुरुष गुरुजनों तथा बड़ोंकी शिक्षाओंपर श्रद्धा करते थे। मदोन्मत्त सुन्दर युवक ही वेश्याओंके प्रेम-प्रपंचमें फंसते थे। जिन लोगोंने प्रचुर सम्पत्ति कमा ली थी वे दान देनेमें मस्त रहते थे । कामोन्मत्त कुलीन युवतियाँ अपने प्रेमियोंकी उपासनामें भूलो रहती थीं। इस प्रकार उस नगरका व्यक्ति अपने अनुरूप वस्तुके पीछे पागल था॥ ४३ ॥ इस नगरमें सब धर्मों के विद्वान्, सब कोटिके कलाकार और सब ही वर्गों के लोग निवास करते थे। हर प्रकारकी श्रेष्ठ वस्तुओं, नदियों और पानीको बहुलतासे यह नगर स्वर्गके ही समान था। प्रकाण्ड पण्डितों और अतिशय मूोको, कोट्याधीशों और निर्धनोंको, साधु और सन्तजनोंको यह नगरी एक-सी प्रिय थी। यहाँपर चोरी, शत्रुका आक्रमण या षड्यन्त्र, महामारी, आदि रोगोंका नाम भी न सुना जाता था। ४४ ॥ इस नगरके लोग न तो रोगी होते थे, न शोककी मर्म-भेदिनी यातनाओंसे ही छटपटाते थे। किसी भी प्रकारके A आकस्मिक उपद्रव भी वहाँ न थे और भयसे त्रस्त होकर कांपना तो वहाँके लोग जानते ही न थे । इन्हीं सब कारणोंसे वहाँके । नागरिक स्वर्गलोकके सुखोंकी सच्चे हृदयसे उपेक्षा करते थे। इस प्रकार सब इन्द्रियोंको इष्ट-सुख और भोगोपभोगकी आवश्यक सामग्रियोंसे परिपूर्ण उस नगरका अधिक वर्णन करनेसे क्या लाभ ? ॥ ४५ ॥ महाराज धर्मसेन इस नगरके महाराज धर्मसेन नामसे विश्वमें विख्यात थे। वह विश्वविख्यात भोजवंशमें उत्पन्न हुए थे। धर्म, अर्थ १. [ वेश्याङ्गनासु ललिताः]। २. म जलनिषेः सुरलोकजल्पम् । ३. म नीराग""निर्भयत्वान्यस्मिन् । Jain Education interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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