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________________ बराङ्ग चरितम् प्रथमः सर्गः ARDARPIRESTHEATREAweseAAHAPAHARA कामिनीजनमनोहरचारुमूर्तिनौकावहप्रथितलब्धविशुद्धकीर्तिः । शक्तित्रपप्रतिविशेषहतप्रजातिः शास्त्रोपदिष्टवचसाऽप्रतिमानवृत्तिः ॥४७॥ श्रीमान्प्रभिन्नकटवारणतुल्यगामी रक्ताम्बुजच्छविहरामलपाणिपादः । आख्यायिकागणितकाव्यरसाद्यभिज्ञो नित्यं पराभिगमनीयगुणावतंसः ॥ ४८ ॥ बद्धोपसेवनरतिर्दढसौहृदश्च त्यक्तप्रमादमदमत्सरमोहभावः। सत्संग्रहः स्थिरसखः प्रियवागलोभः प्रागल्भ्यदाक्ष्यसहितो हितबन्धुवर्गः ॥४९॥ रूपेण काममथ नीतिबलेन शक्र कान्त्या शशाङ्कममरेन्द्रमदारकीर्त्या। दीप्त्या दिवाकरमगायतया समुद्रं दण्डेनदण्डधरमप्यतिशिश्य एव ॥ ५०॥ काम तीनों पुरुषार्थोंका मर्यादापूर्वक पालन करने और करानेमें कुशल थे। 'प्रजाका न्यायपूर्वक पालनपोषण हो' यह विचार सदा ही उनके मनमें चक्कर काटा करता था। वह इतने मन्त्रदक्ष थे कि उनकी योजनाओंकी, पूर्ति होनेके पहिले तक किसीको गन्ध भी न मिलती थी ।। ४६ ॥ उसके अत्यन्त सुगठित और सुन्दर शरीरको देखकर ही कामिनी नायिकाएं प्रेमोन्मत्त हो जाती थीं, सामुद्रिक व्यापारियोंने इसकी निर्मल कीर्तिको सात समुद्र पार दूर-दूर देशोंमें भी प्रसिद्ध कर दिया था। अपनी प्रभु, मन्त्र और उत्साह शक्तियों द्वारा वह प्रजाके समस्त दुख दूर करनेका सतत प्रयत्न करता था और भूलकर भी उसका आचार-विचार शास्त्रोक्त सिद्धान्तों , तथा नियमोंके प्रतिकूल न जाता था। ४७ ।। वह उस सुन्दर और मस्त हाथीके समान झुमके चलता था जिसके मस्तकसे मद-जल बहता है। उसके निर्दोष और विमल हाथ-पैरोंपर लाल कमलको कान्ति नाचती थी। वह गल्प, उपन्यास, गणित, काव्य आदि शास्त्रोंके रस ( ज्ञान ) से अपरिचित न था। उसके सबही गुण ऐसे थे कि उन्हें प्राप्त करनेके लिये दूसरे राजा हर समय लालायित रहते थे ।। ४८॥ उसे गुरुजनोंकी सेवा करनेका व्यसन था। मित्रता करके उसे तोड़ता न था। प्रमाद, अहंकार, मोह, दूसरोंकी वढ़ती देखकर कुढ़ना, आदि बुरे भाव उसके पास तक न फटक पाते थे । उसे सज्जनों और भली वस्तुओं के संग्रहका रोग था। उसके मित्र डंवाडोल स्वभावके व्यक्ति न थे । मधुरभाषी होनेके साथ-साथ बिल्कुल निर्लोभी भी था। साहसिकता और कार्यकुशलता उसके रोम-रोममें समायी थी, और अपने बन्धु-बान्धवोंका परमहितैषी था ।। ४९ ॥ उसने अपने अक्षुण्ण सौन्दर्य द्वारा कामदेवको, न्यायनिपुणता और नीति कुशलतासे शुक्राचार्यको, शारीरिक कान्तिसे से चन्द्रमाको, तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध यश द्वारा देवराज इन्द्रको, तेज और प्रताप द्वारा दिननाथ सूर्यको, गम्भीरता और सहनशीलता १. म युक्ते । Jain Education international For Privale & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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