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________________ वराङ्ग चरितम् अभ्यन्तरस्य नगरस्य बहिःप्रवेशः कान्तो यतो भवति कान्तपुरं तदेव । पद्मालया सततमारमतीति यस्माल्लक्ष्मीपुरं बुधजनैः कथितं पुरं तत् ॥ ३४ ॥ उद्यानपर्वतवनान्तरित प्रदेशैर्वापीतडाग व रपुष्करिणीहदैश्च 1 दिग्देवदेव गृहरम्यसभाप्रपा 'भिर्बाह्य' पुरः परपुरश्रियमादधार ॥ ३५ ॥ आवेष्ट्य तत्पुरवरं परिखाऽवतस्थे द्वीपं यथा जलनिधिर्लवणाम्बुगर्भः । माहीमयोऽभ्युदितशैलसमानशाल: प्रोद्भिद्य भूतलमिवाभ्यधिकं रराज ॥ ३६ ॥ प्रासादकूटवलभीतटगोपुरैः स्वैरत्युच्छ्रितध्वजविचित्रचलत्पताकैः । आरामकल्पतरुगुल्मलताप्रतानै रुद्धातपं पुरमभूद्गरिभित्तिभिश्च ॥ ३७ ॥ संगीतगोतकरतालमुख प्रलापैर्वीणामृदङ्गमुरजध्वनिमुद्गिरद्भिः I हयैरनेक परिवर्धित भूमिदेशे विन्यस्तचित्रबलिभिः सततं रराज ॥ ३८ ॥ इसे कान्तपुर भी कहते थे क्योंकि इस नगरके भीतरके और बाहरके प्रदेश एकसे सुन्दर और स्वच्छ थे । कमलालया लक्ष्मी भीइस नगर में अपने अनेक रूपोंमें सदा निवास करती थी इसीलिए विद्वान् पुरुष इसे लक्ष्मीपुर नामसे भी पुकारते थे ||३४|| इस नगर के बाहिरी भागको शोभा भी अन्य नगरोंको शोभा ओर विभवसे बढ़कर थी; क्योंकि इसके बाहरके भाग उद्यान, कृत्रिम पर्वत, वन और उपवनोंसे भरे पड़े थे। प्रत्येक भागमें बावड़ी, झोल, बढ़िया पुष्करिणो ( पोखरे ) और तालाबोंकी छटा दृष्टिगोचर होती थी । जिधर निकलिये उधर ही दिक्पालों और देवताओंके मन्दिर, रमणीय सभा मण्डप और पियाउओंके पुण्य-दर्शन होते थे || ३५ ॥ क्षार जलपूर्ण लवण समुद्रने जिस प्रकार जम्बूद्वीपको घेर रखा है उसी प्रकार इस श्रेष्ठ नगरको एक विशाल खाई चारों तरफसे घेरे हुई थी। गगनचुंबी पर्वतके समान उन्नत पार्थिव परकोटा इस नगरके चारों ओर इतना अधिक अच्छा लगता था मानो उद्भिजोंके समान वह पृथ्वीको फोड़कर ही ऊपर निकल आया है ।। ३६ ।। इस नगरपर पड़नेवाली सूर्यकी धूप बाहरको बाहर ही रह जाती थी, क्योंकि यह अपने विशाल महलों तथा उनके शिखरों, छज्जोंके कगारों, प्रवेशद्वारों, अत्यन्त ऊँचे ध्वजदण्डों और उनपर लहराती हुई रंग-बिरंगी पताकाओं, बगीचों, विशेषकर उनमें लगे ऊँचे-ऊँचे कल्पवृक्ष, झाड़ियों, कुंजों और पर्वतरूपी भित्तियोंके द्वारा ही उसे (धूपको ) रोक देता था ।। ३७ ।। इस नगरकी शोभाको ऐसे भवन दिन दूना और रात चौगुना करते थे जिनमेंसे सदा ही संगीतके समय बजते हुये करताल, वीणा, मृदङ्ग, तबला, आदि बाजों तथा आलाप और गानेकी मधुर तथा गम्भीर ध्वनि सुनायी पड़ती थी । इन १. म प्रभाभि । Jain Education International For Private Personal Use Only प्रथमः सर्गः [१०] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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