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वराङ्ग
असामयुक्तं प्रसमीक्ष्य लेखकं उपप्रदानाद्रहितं च शासनम् । निशम्य वाक्यं च वचोहरोदितं सदश्चकम्पे सहसैव साकुलम् ॥ ६२॥ कृतापराधादकृतात्मवीर्यतो निराश्रयान्तिःप्रतिकारकारणात् । मगेन्द्र निर्भनितो मतङ्गजो यथाहवे विद्धि कुलाधिपस्तथा ॥ ६३ ॥ बलेन वित्तेन पराक्रमेण च महपतिभ्योऽतिमहान्महीपतिः। कृतार्थकृत्यस्त्वनवार्यवीर्यवान् किमत्र योग्यं वदतार्थचिन्तकाः ॥ ६४ ॥ स्वनाथवाक्यं हि निशम्य मन्त्रिणो हिताहितोपायविचारदक्षिणः । मनोहरं तच्च हितं मिताक्षरं स्वकार्यसिध्द्यर्थमुदाहरन्वचः ॥ ६५॥
एकविंशः सर्गः
चरितम्
वरांगराजके पत्रको वकुलेश्वरने भलीभाँति पढ़ा था किन्तु साम-मय उपायोंसे भी काम चल जायेगाः इसकी उसमें वे कहीं भी छाया तक न पा सके थे। पत्र द्वारा दिये गये शासन; पूर्ण राज्यको छोड़नेके सिवा कोई दूसरा विकल्प ही न था, इसके अतिरिक्त जब विद्वान दूतके मुखसे अन्य समाचार सुने तो वकुलेश्वरको पूरीको पूरो राजसभा हो अनागत भयसे कांप उठी थी ॥ ६२॥
त्रिभिमांसः इसमें सन्देह नहीं कि उत्तमपुरके अधिपतिके साथ वकुलेश्वरने घातक अपराध किया था, उसको अपनी शैन्य, कोश, आदि शक्तियाँ युद्धकर्कष वरांगराजसे लड़ने योग्य न थीं, उसके कोई प्रबल सहायक न होनेसे वह सर्वथा निराश्रय था तथा कोई ऐसी युक्ति न थी जिसके द्वारा उपस्थित संकट टल जाता, इन सब कारणोंमे युद्धके विकल्पको स्वीकार करनेमें वकुलाधिपकी वही अवस्था हो गयी थी जो कि हिरणोंके राजा सिंहको गर्जना सुननेपर मदोन्मत्त गजको हो जाती है ॥ ६३ ॥
जहाँतक चतुरंग सेना शक्ति, कोश तथा व्यक्तिगत पराक्रम और उत्साहशक्तिका सम्बन्ध था आनर्तपुराधीश वरांगराज पृथ्वीके सब हो राजाओंसे इतना बड़ा है कि कोई तुलना ही नहीं की जा सकती है। इसके अतिरिक्त वह सब कार्योंमें दक्ष है, विक्रम तो उसका ऐसा है कि संसारकी सारी शक्ति तक उसे नहीं रोक सकती है। कार्य विचारमें दक्ष आप ( मंत्री ) लोग ही बतावें । इन परिस्थितियोंमें क्या करना सब दृष्टियोंसे उचित होगा ।।' ६४ ।।
वकुलेश्वरके मंत्री अपने स्वामीके लाभ और हानिकों साधु रोतिसे विचार कर देखने में अत्यन्त कुशल थे, अतएव जब उन्होंने विपत्तिमें पड़े अपने राजाके वचनोंको सुना, तो उन्होंने अत्यन्त मनोहर ढंगसे राजाके कल्याणकी बातोंको व्यर्थं विस्तार से बचाकर गिने चुने शब्दोंमें प्रकट किया था। उनकी सम्मति ऐसो थी कि उसके आचरणसे स्वकार्यको सिद्धि हो सकती थी॥६५॥
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