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वराङ्ग चरितम्
देवेषु पूजां गुरुषु प्रणामं पराक्रमं शत्रुषु सत्सु मैत्रीम् । पात्रेषु दानं च दयां प्रजासु विद्यासु रागं सततं चकार ॥५॥ शब्दार्थगन्धर्वकलालिपिज्ञो हस्त्यश्वशास्त्राभ्यसनप्रसक्तः। व्यपेतमायामदमानलोभस्तत्याज सप्त व्यसनानि धीमान् ॥६॥ कदाचिदभ्यस्य गजाश्वशास्त्रमृद्धया महत्या नगरी प्रविश्य । प्रणम्य भक्त्या पितरौ यथावत्तस्थौ पुरस्ताद्विनयानताङ्गः ॥ ७॥ समीक्ष्य तौ पुत्रगुणानुदारान रूपं वपुस्तन्नवयौवनं च।। काचिद्भवेदस्य' समानरूपा वपुष्मतीति स्मरतः स्म सद्यः ॥८॥
द्वितीयः सर्गः
किशोर अवस्थासे ही वह सदा ही सच्चे देवोंकी पूजा व गुरुओंकी मन, वचन और कायसे विनय करता था। उसके पराक्रमका प्रदर्शन शत्रुओंपर ही होता था। सज्जनमात्रके साथ मैत्रीपूर्ण व्यवहार करता था। विपदग्रस्त उपयुक्त सत्पात्रोंको । दान देता था, प्रजामात्रपर कारुण्य-भाव रखता था और विद्याओंपर उसका सच्चा अनुराग था ॥ ५॥
लेख, व्याकरण, काव्य, संगीत, आदि सब ही कलाओंमें पारंगत था। दिन रात, हाथी घोड़ेकी सवारी और शस्त्र विद्याके अभ्यास करनेमें तल्लीन रहता था। छल, कपट, प्रमाद, अहंकार, लोभ आदि दुर्गुण तो उसके पाससे भी न निकले थे इसके सिवा उसने बुद्धिपूर्वक, जुआ, आखेट, वेश्यागमन, आदि सातों व्यसनोंको भी छोड़ दिया था॥ ६॥
किसी एक दिन राजकुमार वराङ्गने गज-अश्व आरोहण और शस्त्रचालनका अभ्यास करके बड़े भारी ठाट बाटके साथ राजधानीमें प्रवेश किया। इसके बाद राजमहल में पहुँचकर भक्तिभावसे माता-पिताके चरणोंमें प्रणाम किया और विनम्रतासे झुककर अपनी मर्यादाके अनुसार उनके सामने बैठ गया ।। ७ ॥
राजकुमारको विवाह वार्ता राजपुत्रके उदार गुणोंका विचार करके तथा उसके सुन्दर शरीर और उसपर भी यौवनके प्रथम उन्मेषको देखकर एकाएक उसी क्षण उन दोनोंके मनमें यही ध्यान हो आया "क्या कोई राजकुमारी इसीके समान रूपवती तथा शरीरसे स्वस्थ । [२०] होगी ॥ ८॥
१. म काचिद्भवेदप्यसमान ।
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