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________________ बराङ्ग चरितम् द्वितीयः सर्गः धर्मेण संप्राप्तमनोरथस्य श्रीधर्मसेनस्य नरेश्वरस्य । प्रियाङ्गनायां स वराङ्गनामा जज्ञे कुमारो गुणपूर्वदेव्याम् ॥ १ ॥ यस्मिन्प्रसूतेऽभिननन्द राष्ट्रं पितुश्च मातुर्ववृधे प्रहर्षः । भयं रिपूणामभवत्तदैव दुद्राव शोकः स्वजनस्य तस्य ॥ २ ॥ अन्योन्यहस्तैः प्रतिनीयमानो बालेन्दुवद् वृद्धिमुपाजगाम । कलाप्रलापं वदनारविन्दं संप्रेक्ष्य भूपो न ततर्प लोकः ॥ ३ ॥ अनेक सल्लक्षणलक्षिताङ्गः प्रतापकान्तिद्युतिवीर्ययुक्तः । विद्वत्सहाय मतिमान् दयालुः प्रजाहितार्थाय कृतप्रयासः ॥ ४ ॥ द्वितीय स कुमार वराङ्गः प्रजापालक महाराज धर्मसेनके सब ही मनोरथ धर्मके प्रतापसे अपने ही आप पूरे हो जाते थे इसीलिए उनकी प्राणप्यारी श्रेष्ठ रानी [ जिसके नाम में देवी शब्द के पहिले गुण शब्द लगा था अर्थात् गुणदेवी ] गुणवतीके वराङ्ग नामका राजपुत्र हुआ था ॥ १ ॥ कुमार वराङ्गके जन्म लेते ही माता-पिता के आल्हाद समुद्रने अपनी मर्यादाको छोड़ दिया था। कुटुम्बी और सगे सम्बन्धियोंका शोक उन्हें छोड़कर 'नौ दो ग्यारह हो गया था। सारा राष्ट्र आनन्द विभोर हो उठा था और शत्रुओंको उससे अपनी पराजयका भय भी उसी क्षणसे होने लगा था ॥ २ ॥ कुटुम्बियों और परिचारकोंमें सदा ही एक से दूसरेकी गोद में जाता हुआ शिशु बालचन्द्र के समान दिन दूना और रात चौगुना बढ़ रहा था। जब वह तुतला, तुतलाकर मधुर अस्पष्ट शब्द बोलता था तब कमलके समान निर्मल, सुन्दर और कोमल मुखको देखते देखते न राजा ही अघाता था और न प्रजाजन ॥ ३ ॥ उसके शरीपर अनेक शुभ लक्षण स्पष्ट दिखायी देते थे । शैशव अवस्थामें ही उसके शरीरसे प्रताप, कान्ति, लावण्य और बल टपकते थे । उसकी बुद्धि प्रखर थी । शैशवकालसे ही विद्वानों की सहायता करता था। उसका अन्तःकरण दयासे ओतप्रोत था और प्रजाके कल्याणके लिए प्रयत्न करता था ॥ ४ ॥ १. [ कलप्रलापं ] । Jain Education International For Private & Personal Use Only Met द्वितीय: सर्ग: [१९] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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