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________________ बराङ्ग प्रथमः चरितम् ताभ्यां यथेष्टमभिसंहितमन्मथाभ्यां तुल्यानुरागरतिवर्धनसत्क्रियाभ्याम् । अन्योन्यचित्तपरिपोषणतत्पराभ्यां प्राप्त नजन्मचिरजीवितयोः फलं तत् ॥६॥ अनुपरतमृदङ्गमन्द्रनादे मणिकिरणैरवभासितान्धकारे। षड्ऋतुसुखगृहे विशालकोतिर्वरवनिताभिररस्त राजसिंहः ॥ ६९ ॥ इति नगरनरेन्द्र [-] भार्याः प्रथमतरं कथिताः कथाप्रबन्धात् । श्रुतिपथसुखदं निगद्यमानं तत उपरि प्रकृतं निशामयध्वम् ॥ ७०॥ इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भ वराङ्गचरिताश्रिते जनपदनगरनृपतिनृपपत्नीवर्णनो नाम प्रथमः सर्गः । सर्गः उन दोनोंने मनुष्य जोवन और लम्बी आयुका वास्तविक फल प्राप्त कर लिया था, क्योंकि उन्होंने मनभरके कामदेवकी आराधना की थी। उनकी प्रत्येक आदर सत्कारमय चेष्टा दोनोंके प्रेम और रिरंसाको बराबरीसे बढ़ाते थे, और दोनोंके दोनों एक दूसरेके मनको संतुष्ट करने और बढ़ानेके लिए सर्वदा कमर कसे रहते थे ॥ ६८॥ विश्वविख्यात यशस्वी महाराज धर्मसेन अपनी परम कुलीन रानीके साथ उस विशाल राजभवनमें रमण करता था, जिसमें छहों ऋतुओंके सुख मौजद थे, जगमगाते मणियोंकी किरणोंसे रात्रिका अन्धकार हटाया जाता था और जिसके गोपुर पर । बजते हुये मृदंगोंकी गम्भीर ध्वनि कभी बन्द न ही होती थी॥ ६९ ।। _ इत प्रकार कथाके क्रमके अनुसार सबसे पहिले देश, राजधानी, राजा और पट्टरानीका वर्णन किया है जो कहने सुननेपर कानोंको सुख देता है। इसके उपरान्त आप लोग वास्तविक कथाको सुनें ।। ७० ॥ चारों वर्ग समन्वित, सरल शब्द-अर्थ-रचनामय बरांगचरित नामक धर्मकथामें जनपद नगर-नृपति-नृपपत्नी वर्णन नामका प्रथम अध्याय समाप्त । [१८] Jain Education intémational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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