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वराङ्ग
शुद्धान्वया रुचिरभूषणभूषिताङ्गी कामेकभारवति कर्कशजातरागा (?)। स्निग्धा हिता शुचिमती मितवाक्सुदक्षा भूमीश्वरस्य हृदयं स्वगुणैर्बबन्ध ॥ ६४ ॥ या धर्मसेननयनामृतरूपशोभा तस्मै वचःश्रवणपथ्यहितानुवाक्या। तद्गात्रचित्तरतिकारणवेषचेष्टा तेनाभवत्सुरतनाटकनायिका सा ॥६५॥ तस्यास्तदाङ्गममलेन्दु'निभाननायाः पोनोन्नतस्तनतटापितचन्दनायाः । आश्लिष्य कामशरताडनविह्वलायाः प्रीति परामुपजगाम पतिर्धरायाः ॥ ६६ ॥ सा चापि तस्य वदनं नयनातिकान्तमाकृष्य सीधुरसिना बदनाम्बुजेन । भयश्चचम्ब मदनातुरमन्दचेष्टापूर्व प्रियवणितपाटलविभ्रमोष्ठी ।। ६७॥
प्रथमः सर्गः
चरितम्
ये वही काम करती थीं जिसे राजा मन ही मन चाहता था ।। ६३ ॥
महारानी गुणवती उक्त प्रकारसे समानता होनेपर भी इन सब रानियोंमें गुणवती रानी वैसी ही चमकती थो जैसे निर्मल ताराओंके बीच चन्द्रलेखा अपनी कान्ति और सरलताके कारण विशेष शोभित होती है ।। ६३ ॥
इसका पितृ-मातृकुल परमशुद्ध था, स्वभाव स्नेहमय था और सबका भला चाहती थी। शरीर और मन परम पवित्र थे। परिमित बोलती थी और हर एक कार्य करनेमें अत्यधिक कुशल थी। थोड़ेसे उपयुक्त और सुन्दर भूषण पहिन लेनेपर इसका सौन्दर्य चमक उठता था। कामदेवका सारा भार मानों उसीपर आ पड़ा था इसीलिए उसे अपने पतिसे प्रगाढ़ प्रेम था॥ ६४ ॥
उसका रूपभार महाराजा धर्मसेनकी आँखोंको अमृत था। बार-बार पूछनेपर कभी-कभी बोलनेवाली रानीकी हितमित वाणी राजाके कानोंके लिए पथ्यसा मालूम देती थी। उसकी वेशभूषा और हावभाव राजाके मनको विकल और शरीरको कामातुर करनेमें समर्थ होते थे इसीलिए वह सूरतरूपी नाटककी प्रधान अभिनेत्री बन सकी थी।। ६५ ॥
उसका मुख पूर्णिमाके निष्कलंक चन्द्रमाके समान मनमोहक और रति-उत्तेजक था। पूर्ण विकसित उन्नत स्तनोंपर चन्दन लेप लगानेपर उसका शरीर बड़ा उद्दीपक हो जाता था। कामदेवके इन बाणोंकी मारसे विह्वल होकर राजा उसके शरीरका आलिंगन करता था। और इस तरह प्रीति समुद्रमें डूबता और तैरता था॥ ६६ ॥
उसके लाल-लाल ओठ पतिके चुम्बनोसे क्षत विक्षत हो जाते थे तथा कामके आवेशमें आ जानेके कारण शारीरिक से चेष्टाएँ मन्थर हो जाती थीं तो भी वह आँखोंको अत्यन्त प्यारा राजाका मुख अपनी तरफ खींचकर मदिराकी गन्धयुक्त अपने
मुख कमलसे बार-बार चूमती थी॥ ६७ ॥ १. म मनलेन्दु।
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