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________________ बराङ्ग चरितम् पृथुश्रियं यौवनकर्कशा पद्मक्षणं मत्तगजेन्द्र लीलम् । कश्चिद्भटं वश्यमनं न लप्स्ये सलज्जवत्या न हि मेऽस्ति शान्तिः ॥ ७७ ॥ इति नरपतिपुत्री कामवह्निप्रतप्ता ज्वलदनलशिखार्ता प्रातपत्रा लतेव । अहरहरभिमानक्षीयमाणाङ्गयष्टिर्नभसि बहुलपक्षे चन्द्रलेखेव सासीत् ॥ ७८ ॥ यदि मम गृहधर्मे जीवितं जीवयोनौ भवति भवतु' सम्यक्त्वेन कश्चिद्भटेन । वदनकमलसङ्गं तेन साधं मम स्याद्वंरचरणसुबोधं लब्ध मे मुक्तिमार्गम् ॥ ७९ ॥ जिनवर मतमग्र्यं स्वर्गसोपानपङ्क्तिर्यदि मम न हि भाग्यात्संपनीपद्यते ' चेत् । स्फुरदनलकलापज्वालमालासु देहं मदनशरसुलक्ष्यं तद्रहोध्ये ( ? ) तमाशु ॥ ८० ॥ यौवन के उभार के कारण पीन, पुष्ट तथा पुरुषोचित कठोरता युक्त शरीरधारी कमलके समान मोहक नेत्रयुक्त तथा मदोन्मत्त हाथो के समान लोलापूर्वक विचरते हुए मनस्वी कश्चिद्भटकी जब तक प्राप्ति नहीं होती है तबतक लज्जाके वेष्टन में घुट-घुटकर मरनेवाली मुझे शान्ति कहाँ मिल सकती है ? ' ॥ ७७ ॥ प्रेमिकाका आत्म प्रत्यय महाराज देवसेनकी राजदुलारी उक्त प्रकारसे निराश होकर कामरूपी अग्निकी लपटोंसे झुलस रही थी। उस समय उस विचारीकी वही दशा थी जो उस लताकी होती है जिसके पास भभकती हुई अग्निको ज्वाला उसके आगेके पत्तोंको जलाती हुई भीतरी भागोंपर बढ़तो आती है। विरह के सर्वतोमुख तापके द्वारा उसकी स्वभावसे ही इकहरी देह दिनोंदिन कृषतर होती जा रही थी। उसकी ओर देखते हो कृष्णपक्षकी एकमात्र चन्द्रकलाका स्मरण हो आता था जो कि पूर्ण चन्द्रकान्तिसे घटते घटते आकाश में केवल एक कला रह जाती है, और वह भी अगले दिन नष्ट हो जानेके लिए || ७८ ॥ नारीका निर्वेद इस जन्म में अथवा इस जीवयोनिमें यदि मुझे कभी गृहस्थाश्रमें प्रवेश करना ही हो तो सम्यक्त्वके प्रतापसे उस सम्यक दृष्टी कश्चिद्भटके साथ ही हो। यदि मेरे मुखको किसी पुरुषके पास जाना है तो उस कश्चिद्भट के हाथों ही ऐसा हो । यदि ऐसा अशक्य है तो सम्यक्चारित्र और सम्यक्ज्ञानकी उपासना करके मुक्ति मार्गको प्राप्त करना ही मेरा लक्ष्य है ।। ७९ ॥ जिनेन्द्र देवके द्वारा उपदिष्ट धर्मं हो सब धर्मोसे श्रेष्ठ है वह स्वर्गरूपी उन्नत स्थानपर पहुँचने के लिए सुखकर सीढ़ियोंके समान है, किन्तु दुर्भाग्यके कारण यदि वह भी मुझे इस जन्ममें प्राप्त नहीं होता है तो कामदेव के तीक्ष्ण वाणोंके द्वारा निर्दय रीतिसे भेदी गयी मैं इस देहको जलती हुई अग्निको ज्वाला में शीघ्र ही होम कर दूंगी ॥ ८० ॥ १. म सम्यकतेन । २. कल ते, [ लभ्यते ] । ३. [ संप्रती° ] । ४. क मदनशत For Private & Personal Use Only Jain Education International एकोनविंश: सर्गः [ ३७६ ] www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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