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________________ स्थिरमतिरकृतार्था सम्यगीदृक्प्रतिज्ञा व्रतगुणनियमान्ता भावयन्ती क्रमेण । स्वसनबवथपक्ष्मास्वासभाषा" च साध्वी 'प्रियगतिरतितृष्णालापदा पाण्डुगण्डा ॥१॥ बराङ्ग इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भ वराङ्गचरिताश्रिते मनोरमामतिविभ्रमो नाम एकोनविंशतिः सर्गः । एकोनविंशः सर्गः राजकुमारीको बुद्धि स्थिर थी अतएव अपने प्रेम प्रपंचमें भग्न-मनोरथ होकर उसने ऐसी दृढ़ प्रतिज्ञा को थी। धारण किये गये समस्त व्रतों और गुणोंका ध्यान रखती हुई वह साध्वी एकनिष्ठ राजदुलारी सांस लेतो हुई पड़ी थी, न उसके शरीरमें । धड़कन थी, न पलक झपते थे, और न कुछ बोलती ही थी । उसका पूरा ध्यान अपने प्रिय पर लगा हुआ था तथा कपोल बिल्कुल सफेद हो गये थे अतएव आसपासके प्रिय परिचारक जनोंको बड़ी चिंता तथा बेचैनी हो रही थी। ८१ ।। चारों वर्ग समन्वित, सरल-शब्द-अर्थ-रचनामय वरांगचरित नामक धर्मकथामें 'मनोरमा-मतिविभ्रम' नाम एकोनविंशः सर्ग समाप्त । [३७७] नियमांस्तान् ] । २. [ श्वसनदववेपधुपवक्ष्माश्वासभाषा]। ३. [ प्रियमति°]। ४. [ एकोनविंशः ] । ४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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