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________________ बराङ्ग चरितम् यानि लोकेषु सर्वेषु फलपर्णतणानि च । भक्ष्यन्ते चेत्तथा चापि क्षुदग्निर्नोपशाम्यति ॥ ९९ ॥ एवं बहुप्रकारेस्तु दुःखान्याप्नुवतां भृशम् । सुखनामापि भूपाल नारकाणां न विद्यते ॥१०॥ पालयित्वा महीं कृत्स्नामुपभुज्यात्मनः श्रियम् । चक्रवर्ती प्रयातीति नरकं कोऽत्र विस्मयः॥ १०१॥ मनसैव विचिन्त्यात्र विविधा भोगसंपदः । मनश्चक्रधर' श्वाभ्रों प्रयातीत्येष विस्मयः ।।१०२॥ क्षुद्रमत्स्यः किलैकस्तु स्वयंभुरमणोदधौ । महामत्स्यस्य कर्णस्थः स्मृतिदोषादधोगतः॥ १०३ ॥ सप्तम्यां तु त्रयस्त्रिंशत् षष्ठयां द्वाविंशतिः स्मृताः। पञ्चम्यां दशसप्तैव चतुर्थ्या दश वर्णिताः ॥ १०४॥ तृतीयायां तु सप्तव द्वितीयायां त्रयः स्मृताः । प्रथमायां भवत्येकः सागरः संख्ययायुषः ॥ १०५॥ पञ्चमः । सर्गः SaamaARISHAILESEcondiaRenaissanamratarnaSR तीनों लोकोंमें जो अपरिमित फल फूल हैं, पत्ते हैं और घास है वह सब यदि किसी तरह कोई नारको पा जाय और खा जाय तो भी उसकी भूखकी ज्वाला जरा भी शान्त न होगी। ९९ ।। हे राजन् ! आपने देखा कि उक्त प्रकारसे नारकी जीव अनन्त प्रकारके दारुणसे दारुण दुःख भरते हैं और वह भी, बिना अन्तरालके सहते हैं क्योंकि नरकोंमें मुखको तो बात ही क्या है, विचारे नारको सुखके नामको भी नहीं जानते हैं ।। १००॥ परिग्रह नरकका कारण है जो चक्रवर्ती सम्पूर्ण पृथ्वोका न्याय और शासन द्वारा पालन करता है तथा अपने पुरुषार्थ और पराक्रमसे प्राप्त संसारकी समस्त विभूतियोंका भोग करता है। वही पापकर्मों के विपाकसे नरक जाता है इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है ।। १०१॥। जो पुरुष इस भवमें मनके द्वारा संसारकी समस्त विभूतियों तथा भोगोपभोग सामग्रीको सोचता रहता है और मानसिक परिग्रह बढ़ाता है, वह मानसिक ( कल्पनाका ) चक्रवर्ती भो सीघा नरक जाता है। यही आश्चर्यका विषय है ।। १०२॥ पुराण बतलाते हैं कि स्वयंभूरमण महासमुद्रमें एक इतनी बड़ी मछली है जो एक द्वीपके समान है। इस महामत्स्यके । कानमें एक छोटा-सा मच्छ रहता है जिसका यही ध्यान रहता है कि यदि वह बड़ा मत्स्य होता तो सब जल-जन्तुओंको खा जाता । इस दूषित कल्पनाके कारण ही वह घोर नरक गया है ।।१०३।। __ सप्तम नरक महातमाप्रभा पृथ्वीमें तेतोस सागर उत्कृष्ट आयु है, छठे नरकमें बाईस सागर आयुका प्रमाण है, पाँचवें नरकमें नारकियोंकी लम्बीसे लम्बी आय सत्तरह सागर ही है, जो कि चौथे पंकप्रभा नरक में दशसागर हो उत्कृष्ट है ।। १०४ ।।। नरकाय बालुका प्रभा नरक में अधिकसे अधिक आयु सात सागर हो है, दूसरी पृथ्वी वंशापर पैदा होने वाले नारकियोंकी उत्कृष्ट आयु तीन सागर होती है और प्रथम धर्मा पृथ्वीपर जन्मे नारकियोंकी उत्कृष्ट आयु एक सागर है ॥ १०५ ।। [१७] १. म चक्रधरः। २. [ स्वयंभूरमणोदधौ]। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org. Jain Education internation३३
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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