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________________ पञ्चमः वराङ्ग चरितम् कांश्चिच्छाल्मलिमारोष्य जन्मसंबन्धवैरिणः । अधश्चोध्वं च कर्षन्तः पातयन्ति भूशं महः॥१२॥ उदारा रुरुवक्षांसि तेषां भिन्दन्ति कण्टकाः । अधस्ताज्ज्वालयन्त्यग्नि ग्रसन्स्युपरि राक्षसाः ॥ ९३ ॥ कङ्कः काकैश्च तुद्यन्ते मशकाश्च दशन्ति तान् । भोषयन्ते पिशाचाश्च भत्संयन्त्यसुराः पुनः ॥९४ ॥ एवं पापविपाकेन दुःखान्येषां समश्नुताम् । नारकाणां पुनस्तत्र शीतोष्णमतिदुस्सहम् ॥ ९५ ॥ नरकादुष्णबाहुल्यान्नारकश्चेद्विनिर्गतः । प्रावेक्ष्य(?) ग्रीष्ममध्यान्हे वन्हि सुखमलप्स्यतः ॥९६॥ तथैव शीतबाहुल्यात्प्रावक्ष्य चेद्विनिर्गतः। तुषारराशिहेमन्ते वरं सुखमलप्स्यतः ॥ ९७ ॥ लभेत जलधोन्सर्वान्पिबेदत्युष्णतृष्णया । उदरं यदि गृहीयान्नोपशाम्यति तत्तृषा ॥ ९८॥ सर्गः SearesmereSRepeasamepre- se-sweepepeSTRE-UPSear तब वे अपने पूर्वभवोंके कुछ वैरियों या अहितुओंको भीषण सेमरके पेड़ोंपर बैठा देते हैं। इसके बाद खब जोरसे नीचे ऊपर खींचते हैं और बिना किसी विचारके पुनः-पुनः नीचे गिरा देते हैं ।। ९२॥ इस खींचातानीमें उन नारकियोंके प्रबल और खुले वक्षस्थलोंको बड़े लम्बे और नुकीले काँटे छिन्न-भिन्न कर देते हैं। वे नीचे भी नहीं आ सकते हैं क्योंकि उनके वैरी नीचे आग जला देते है। यदि ऊपर जाते हैं तो भी कुशल नहीं क्योंकि वहाँ राक्षस खा जाते हैं ।। ९३ ।। गीध और कौए चोचें मार-मार कर ही नोच डालते हैं, डाँस और मच्छर काट-काटकर सारे शरीरको फूला देते हैं, पिशाचों से भी बढ़कर भीषण नारकी चारों ओरसे डराते हैं और यदि आपसी युद्धसे विरत हों तो असुरकुमार देवता डाटते हैं ।। ९४ ॥ इस प्रकारसे नारकी अपने पूर्व जन्मोंमें किये पापोंके फलस्वरूप नाना प्रकारके दारुण दुःख भरते हैं । किन्तु इतनेसे ही हम उनके कष्टोंका अन्त नहीं हो जाता है ? कारण नरकोंका शीत और उष्ण वातावरण ही उन्हें दुःख देनेके लिए आवश्यकतासे अधिक है ।। ९५॥ वातावरण जन्य महादुःख वहाँकी गर्मी और ठंड दोनों ही असह्य होती है। यदि कोई नारकी किसी तरह उस नरकसे निकल सके जिसमें गर्मी बहुत पड़ती है तथा इसके बाद मध्यलोककी ग्रीष्म ऋतुको तीक्ष्ण दुपहरीमें उसे जलती ज्वालामें घुसेड़ दिया जावे, तो भी निश्चित है कि वह अपनेको सुखी समझेगा ।। ९६ ।।। जिस वरफमें पूर्ण शीत पड़ता है, यदि उसमेंसे किसी नारकोको निकाला जाय और हेमन्त ऋतुमें उसे बरफके ढेर में तोप दिया जाय तो, इतना निश्चित है कि वह उस अवस्थामें भी अपनेकी सुखी पायेगा ।। ९७ ।। उनकी प्यास इतनी दाहक होतो है कि यदि वे किसी तरह सब समुद्रोंको पी जाँय तो उस प्यासमें गटागट पी जायगे । इतना पानी पीनेपर संभव है कि उनका पेट भर जाय पर पिपासाकी वह दाह तो शान्त होती ही नहीं है ।। ९८ ॥ 4. [अलप्स्यय ]। For Private & Personal Use Only IASPERSaRSarasREELCELalitDEURALItna [९६] www.jainelibrary.org Jain Education international
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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