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बराङ्ग चरितम्
पुनरन्तमहर्तेन सर्वपर्याप्तविग्रहाः। असातवेदनीयस्य पाकतः संभवन्ति ते ॥८६॥ नेत्रैः पश्यन्त्यनिष्टानि श्रोत्रैः शृण्वन्ति दुःस्वरान । घ्राणेंजिनन्ति दुर्गन्धान स्पृशन्त्यश्च कर्कशान् ॥८७॥ आस्वादन्ते' निरास्वादान् जिह्वाभिगतसत्क्रियाः । इन्द्रियार्थैरकल्याणाकुलीकृतचेतसः ॥ ८॥ नोदासीना न मित्राणि न प्रिया न च बान्धवाः । सर्वत्र नरकावासे सर्व एवापकारिणः ॥ ८९॥ विनिपातसहस्राणि प्रापयन्तः कृतागसः । बाधन्ते क्रोधसंरब्धा आचतुर्थ्यादितोऽसुराः॥ ९०॥ आसुरं भावमाश्रित्य रागविष्टब्धचेतसः । एकत्र स्थापयित्वा तान्योधयन्ति परस्परम् ॥ ९१॥
पञ्चमः सर्गः
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यह सब हो जानेपर भी एक मुहूर्तसे भी कम ( अन्तर्मुहूर्त ) समयमें उनके शरीरके सब अंग जुड़ जाते हैं तथा शरीर । पूरा हो जाता है। यह भी इसीलिए होता है कि उनके असातावेदनीय कर्मका परिपाक उक्त वेदनाएं सहनेपर भी पूरा नहीं। होता है अतएब और वेदनाएं सहनेके लिए ही वे जीवित रहते हैं ।। ८६ ।।
कृतसे मुक्ति नहीं उनकी आंखें यदि कुछ देखती हैं तो वह सब अनिष्ट ही होता है, कानोंके द्वारा सुने गये स्वर भी अत्यन्त कर्णकटु और बुरे होते हैं नाकसे जो कुछ सूघते, वह सब दुर्गन्धमय हो जाता है, हाथ पैर आदिसे जो जो वस्तु छूते हैं वही कठोर और कष्टप्रद 7 मालम देती है ।। ८७ ॥
और जिह्वाके द्वारा जिस किसी पदार्थको चखते हैं वही सर्वथा बेस्वाद हो जाती है। मानों कोई अच्छा इन्द्रिय-व्यापार करनेको शक्ति ही उनमें नहीं रह जाती है इसीलिए सब इन्द्रियोंके द्वारा अकल्याण करनेवाले विषयोंको पाकर उनका चित्त अत्यन्त खिन्न और व्याकुल हो उठता है ।। ८८ ॥
नरकलोकमें मध्यलोककी भाँति न तो ऐसे लोग मिलते हैं जिन्हें किसीके भले बुरेमें कोई रुचि हो, न हो और न ऐसे ही सज्जन होते हैं जो मित्रता करें। हितैषी, प्रियजन तथा बन्धुवान्धवकी तो संभावना ही क्या है ।। ८९ ॥
असुरकुमार __ वहाँपर जिससे भी पाला पड़ता है वही अपकार करता है फलतः सब ही शत्रु होते हैं। और तो कहना ही क्या है असुर । जातिके देवता तक प्रथम नरकसे चौथे पर्यन्तके नारकियोंको तरह तरहसे कष्ट देते हैं। वे स्वयं क्रोधके आवेशमें आकर उन्हें हजारों पतनोंकी ओर ले जाते हैं और इस प्रकार स्वयं भो पाप ही कमाते हैं ।। ९ ।।
इन असुरकुमार देवोंके चित्त रागके द्वारा जड़ ही हो जाते हैं इसीलिए उनके भावोंमें असुरों ऐसी निर्दयता, क्रोध । A आदि आ जाते हैं । परिणाम यह होता है कि उन्हें एक जगह बैठा लेते हैं और आपसमें एक दूसरेके विरुद्ध समझाते है ॥ ९१ ।।
१. क आस्वादन्ति, [आस्वादन्ते ] ।
शक्ति ही उनमें नहीं उठता है ॥ ८॥ लोग मिलते हैं ।
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