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________________ वराङ्ग चरितम् अनेकोपद्रवाकी विषक्षारजलाविलाम् । नदी वैतरणी घोरा तारयन्ति समन्ततः ॥१०॥ तां नदी क्लेशतस्ती वनं पश्यन्ति पुष्पितम् । तद्वनान्तेषु यातेषु वायुरेकः प्रकुष्यति ॥१॥ प्रपतन्त्यसिपत्राणि अय:पिण्डफलानि च । विषमिश्राणि पुष्पाणि सद्यःप्राणहराणि च ॥ २॥ विशीर्णछिन्नभिन्नाङ्गा अधिरुह्योग्रवेदनाः । पतन्ति कण्टकाकीर्णे दिषदग्धे' महीतले ॥ ८३ ॥ विनिर्दह्यमानाङ्गा रसन्तर: करुणस्वनैः। भिन्दन्ति क्रियमोऽङ्गानि दशन्ति च पिपीलिकाः॥८४ ॥ कृष्णाः श्वानो विलम्पन्ति कर्षन्त्यसितवायसाः । दशन्ति कृष्णसपश्चि चूषयन्त्यथ मक्षिकाः॥८५॥ पञ्चमः सर्गः बहाना बनाकर तड़पते नारकियोंकी गर्दन सावधानीसे पकड़ लेते हैं और तुरन्त ही जलते हुए पानीमें शिरसे पैरतक डुबा देते हैं ॥ ७९ ॥ इतना ही नहीं वे चारों ओरसे रास्ता घेर लेते है और गरम जलमें तड़पते हुए नारकियोंको अत्यन्त घोर वैतरणी नदी, पार करनेके लिये वाध्य करते हैं। यह वैतरणी भीषण जलजर, भंवर आदि अनेक उपद्रवोंसे भरी है, इसका पानी भी विषमय हैं और इतना खारी है कि शरीर में जहाँ लगता है वहीं काट देता है ।। ८० ।। जब कोई अन्य गति ही नहीं रह जाती है तो नदीमें पड़े नारकी बड़े कष्टोंसे नदीके उस पार पहुँचते हैं। वहाँपर फलेफूले बगीचेको देखते हैं तो शान्ति पानेके लिए वनमें घुस जाते है। किन्तु ज्योंही वनके बीचमें पहुँचते है त्योंही हवा क्रुद्ध (तीव्रतम ) हो जाती है और भीषण आंधीका रूप ले लेती है ।। ८१ ।। वृक्षोंसे पत्ते गिरते हैं जो तलवारके समान काटते हैं, फल इतने भारी होते हैं मानों लोहेके गोले हो हैं और फूलोंमें तो विष ही भरा रहता है जो कि तुरन्त ही प्राण ले लेता है ।। ८२ ॥ वृक्षोंकी उक्त मारसे उनका सारा शरीर क्षत-विक्षत हो जाता है अंग-उपांग कट छट जाते हैं ।। ८३ ।। सब दुःखमय तव वे प्राणरक्षाके लिए ही क्योंकि वेदना असह्य हो जाती है-उन पेड़ोंपर चढ़ जाते हैं। लेकिन चढ़कर बैठे नहीं कि धड़ामसे धधकती रहती है भूमि पर आ पहुँचे । भूमिके विषके संचारसे उनका समस्त शरीर जलने सा लगता है तब वे अत्यन्त करुण स्वरसे बुरी तरह रोते हैं। पर सब व्यर्थ क्योंकि वहाँपर दीमक-आदि कृमि उनके शरीरको नष्ट करती है और चींटियाँ जोरसे काटती हैं ।। ८४ ।। इतना ही नहीं काले-काले कुत्ते आकर उनको चौड़ना फाड़ना शुरू कर देते है। अशुभ कृष्ण काक उनके अगोंको चोंचोंसे खींचते हैं, काले, कालकूट विषपूर्ण भीषण सर्प डसते हैं और विचित्र मक्खियां उनका रक्त पीती हैं ।। ८५ ।। १. म विसदग्धे । २. रुशन्तः करुणास्वरः। ३. म हर्षन्त्यसितवायसाः । SHAHIRATRAPATHAHAPAALHARIHARANAINA Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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