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________________ पुनः पर्याप्तसर्वानाः सहसैव समुत्थिताः । विद्रवन्तो भयत्रस्ताः समारोहन्ति पर्वतान् ॥७३॥ ते शैलाच्छीर्यमाणानाचूर्णयन्त्यभिधावत:(?) । खादन्ति व्याघ्रसिंही गुहाभ्यस्तु विनिर्गताः॥ ७४ ॥ ततोऽवतीर्य पश्यन्तो भुजानान्पिबतो जनान् । याचमानाः शनैर्यान्ति क्षत्तष्णापरिमर्दिताः॥ ७५ ॥ बराङ्ग पञ्चमः चरितम् । तेऽभ्युत्थाय सुसंभ्रान्ताः पाद्यााद्यैर्यथाविधि । उपचारान्बहन्कृत्वा प्रयच्छन्त्युष्णपीठिकाः ॥ ७६ ॥ सुतप्तकृष्णलोहस्य गुलिकाः खण्डशः कृताः । यन्त्रविदार्य वक्रेषु क्षिपन्ति त्रस्तचेतसाम् ॥ ७७ ॥ शुष्कताल्वोष्ठजिह्वास्यान्निष्कृपास्तृषयादितान् । प्रतप्तताम्रमापात्य क्रन्दतः पाययन्ति तान् ॥ ७८ ॥ केचिदुष्णप्रतीकारं कुर्वन्त इव निर्दयाः । गलग्रहेण संगृह्य मज्जयन्त्युष्णवारिषु ॥ ७९ ॥ वहाँ गिरते ही थोड़ी देर में उनके शरीरके सब आंगोपांग फिरसे ठीक हो जाते हैं, तब वे अकस्मात् ही उठकर खड़े हो । जाते हैं लेकिन चारों ओरकी परिस्थितियोंको देखकर भय विह्वल हो जाते है और आत्मरक्षाके लिए भागते, भागते पर्वतोपरी चढ़ जाते हैं । पर्वतोंपरसे फेंके जानेके कारण पत्थरोंसे घिसकर उनके सबही अंग गलने लगते हैं फलतः वे दौड़ते जाते हैं और चिल्लाते रोते जाते हैं ।। ७३ ।। इसके बाद क्या होता है ? पर्वतकी गुफाओंसे सिंह, वाघ और रीछ निकलते हैं जो कि उन्हें खाना ही प्रारम्भ कर देते हैं ।। ७४ ॥ अन्य दुःख साधन तब वे पहाड़ोंसे भी भागते हैं और नीचे आकर देखते हैं कि कुछ लोग सुन्दर भोजन कर रहे हैं और दूसरे लोग बढ़िया शरबत आदि पो रहे हैं। वे स्वयं भी भूख और प्याससे चकनाचुर रहते हैं इसलिए धीरे-धीरे चलने लगते हैं और उन लोगोंसे भोजन-पान माँगते हैं ।। ७५ ।। वे लोग ( भोक्ता ) भी बड़ी त्वरा और आदरसे उठते हैं और माँगनेवालोंको विधिपूर्वक पैर धोनेको जल देते हैं। अर्घ अर्पण करके स्वागत करते हैं, इसके उपरान्त अनेक शिष्टाचार और आवभगतोंको करते है तथा अन्तमें अत्यन्त जलता हुआ । आसन बैठनेको दे देते हैं ।। ७६ ॥ उसपर बैठते ही उनके हृदय भयसे कांप उठते हैं किन्तु दुर्गति होती ही रहती है क्यों अन्य नारको खूब गरम किये गये लोहेके गोलोंको अनेक टुकड़ोंमें बांट देनेके बाद, भूखोंके मुखोंको यन्त्रोंके द्वारा फाड़कर उनमें ठूस देते हैं। यह होनेपर उनके तालु, जिह्वा और मुख बिल्कुल सूख जाते हैं।। ७७॥ न [१३] वे प्याससे दुखी होकर चिल्लाने लगते हैं, तब दूसरे निर्दय नारकी उनकी विनय, विलाप और पुकारको परवाह नही करके खूब तपाये गये ताम्बेके द्रव ( पानी ) को उनके मुख में भर देते हैं और बलपूर्वक पिलाते हैं ।। ७८ ।। वे नारकी कितने हृदयहीन और निर्दय होते हैं इसका पता इसीसे लग जायगा कि वे गर्मीके प्रतीकार करनेका For Private & Personal use only न Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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