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________________ पञ्चमः बराङ्ग चरितम् सर्गः दशवर्षसहस्राणि प्रथमायां जघन्यतः । उपयु परि योत्कृष्टा सैवाधोऽधो जघन्यकः ॥ १०६॥ चिरकालं तु दुःखानि नारका नरकालये। अपवायुषो यस्मात्प्राप्नुवन्ति ततो भृशम् ॥१०७॥ सुखं निमेषतन्मात्रं नास्ति तत्र कदाचन । दुःखमेवानुसंबन्धं नारकाणां दिवानिशम् ॥ १०८॥ इत्येवं नरकगतिः समासतस्ते संप्रोक्ता बहबिधयातनामिदानीम् । तैरश्चों गतिमत उत्तरं प्रवक्ष्ये नियंग्रः शृणु नरदेव सत्वबुद्धया ॥ १०९ ॥ श्वानीणां तिमिरगुहासु तासु दुःखं पापिष्ठाश्चिरमनुभय कर्मशेषात् । तैरश्ची पुनरथ संभजन्त्ययद्रास्तत्रापि प्रतिभवदुःखमेव शश्वत् ॥ ११०॥ इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भे वराङ्गचरिताश्रिते नरकगतिभागो नाम पञ्चमः सर्गः। Prepresenexpre-meatmemarSTREERe-umenexpresummateSTREASURESSURE-STEST प्रथम रत्नप्रभा पृथ्वीपर जघन्य आयुका प्रमाण केवल दस हजार वर्ष है। इसके आगे अगले नरकोंमें ( यथाबंशामें ) उससे पहिले नरक (धर्माकी ) की उत्कृष्ट आयु ( एक सागर ) ही जघन्य होती है ।। १०६ ।। नरकमें अकाल मृत्यु नहीं कुकर्मोके पाशमें पड़े विचारे नारको बडे-बडे, लम्बे अरसे तक उक्त प्रकारके दारुण दुःखोंको वहाँ जन्म लेकर भरते हैं उन्हें अकाल मत्यु द्वारा आयके बीच में भी छट्री नहीं मिलतो है क्योंकि उनको आय किसी भो तरह कम नहीं होती है, फलतः अपवत्यं ( अकाल मृत्यु) की संभावना न होनेसे उन्हें दारुण दुःख भरने पड़ते हैं ।। १०७ ।। पलक मारनेके समयमें जितना सुख हो सकता है उतना सुख भी नहीं होता है उन्हें तो दिन रात बिना अन्तराल या व्यवधानके लगातार दुःख ही दुःख मिलता है ॥ १०८॥ हे नरदेव ? इस समय मैंने उक्त प्रकारसे अत्यन्त संक्षेपमें आपको नरकगति तथा वहाँ होनेवाली नानाप्रकारकी यातनाओंको समझाया है। इसके उपरान्तमें आपको तिर्यञ्चगतिके विषयमें कहता हूँ इसलिये दुविधाको मनसे निकालकर शुद्ध बुद्धिसे उसे सुनो ॥ १०९ ॥ महापापी जीव नरक गतिके घोर अन्धकार पूर्ण गुफा समान बिलोंमें चिरकालतक उक्त विविध दुःखोंको सहकर भी जब सब पापकर्मोका क्षय नहीं कर पाते हैं तब वे अभागे जीव मरकर तिर्यञ्चगतिमें उत्पन्न होते हैं । वहाँपर भी वे भव-भवमें लगातार दुःख ही दुःख भरते हैं ।। ११०॥ चारों वर्ग समन्वित सरल शब्द-अर्थ-रचनामय वराङ्गचरित नामक धर्मकथामें नरकगति भागनाम पञ्चम सर्ग समाप्त १. [ संबद्ध । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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