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________________ वराङ्ग चरितम् एकोनविंशः सर्गः जानामि तेऽहं क्रियमाणमर्थ वचोविकारह दि वर्तमानम् । कुतस्त्वयं कि कुलमस्य वेति कन्याप्रदानं प्रति ते विमर्शः ॥५॥ सा तिष्ठतु स्वा सुसुतानवद्या न तां महीपाल वृणे त्वदीयाम् । वणिक्सतश्चेति मनो निधाय प्रसीद मे वा परिणामरम्याम् ॥६॥ सभागतास्तद्वचनं निशम्य प्रसन्नतां वीक्ष्य विनीततां च । आकृतमीशस्य च संप्रबुध्द्य विज्ञापयां भूमिपति बभवः ॥७॥ त्वयेन्द्रसेनः समरे जितश्चेत्तुभ्यं प्रदास्ये सुतयाधराज्यम् । इत्येवमायोज्य सभासमक्षं भूयो विचारस्तव नानुरूपः ॥८॥ जानता ही है । मेरा भी यही कहना है कि वे (सार्थपति ) हो मेरे सर्वोत्तम सगे सम्बन्धी हैं तथा पूज्य पिता हैं। हे महाराज! उनके अतिरिक्त कोई दूसरा मेरा बन्धु या पिता इस धरातल पर नहीं है, आप ऐसा ही समझें ।। ४ ॥ आपके वार्तालापको शैलोके आधारपर मैं आपके हृदयके भावोंको कुछ-कुछ समझता हूँ, आप जिस कार्यको करना । चाहते हैं उसका भी मुझे आभास हो ही रहा है। आप यही सोचते हैं कि यह कहाँका निवासी होगा ? इसका कुल कौन-सा है ? क्योंकि कन्याका विवाह करते समय इन सब बातोंका विमर्ष करना ही पड़ता है ॥५॥ किन्तु आपकी रूप-गुणवती तथा सुशोल कन्या आपके ही घर रहे । हे महोपाल मैं वर्तमान परिस्थितियोंमें उसे नहीं ब्याह सकता हूँ। आप ऐसा निश्चित ही समझिये कि मैं वणिकपुत्र हो हूँ। इसी बातको मनमें रखकर आप मुझपर प्रसन्न हों, कारण आपके इस अनुग्रहका परिणाम बड़ा मधुर होगा ॥ ६ ॥ भरी सभामें कश्चिद्भटके उक्त वचनोंको सूनकर, उतना बड़ा शुभ अवसर त्यागकर भी उसकी आन्तरिक तथा बाह्य दोनों प्रसन्नताओंको लक्ष्य करके एवं अद्भुत विनम्रताको दृष्टिमें रखते हुए तथा इन सबको अपेक्षा अत्यधिक महत्त्वपूर्ण अपने अभिप्रायको ध्यानमें रखकर महाराज देवसेनसे अत्यन्त समझदारीके साथ सभ्योंने निम्न वक्तव्य दिया था॥७॥ युद्धके पहिले आजके समान ही भरी हुई पूर्ण सभाके समक्ष आपने स्पष्ट घोषणा की थी 'यदि महासमरमें मथुराधिप इन्द्रसेन तुम्हारे द्वारा पराजित किया जायगा तो मैं अपनो प्राणोंसे भी प्यारी पुत्री सुनन्दाको तुमसे ब्याहूँगा और इसके साथ, साथ आधा राज्य दहेजमें समर्पित करूँमा !' इस प्रकारकी घोषणा करके अब उसपर आपका, कश्चिद्भटको इच्छाके अनुसार विचार करना किसी भो दृष्टिसे उचित नहीं है ।।८।। SamamayHEORMATRAPARASHARDHARIHSure [३६०] Jain Education interational For Privale & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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