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बराङ्ग चरितम्
एकोनविंशः सर्गः
अथान्यदा वृद्धतमैर्नरेन्द्रेः' सुखं निषण्णः तनयां प्रदित्सुः । आकासयित्वा पप्रच्छ वंशानुगतां प्रवृत्तिम् ॥ १ ॥ विज्ञानकान्तिद्युतिसत्त्वयुक्तो यतो दिगन्ते प्रथितोरुकीर्तिः । धन्य ततस्ते पितरौ कुतस्तौ विज्ञातुमिच्छामि न चेद्विरोधः ॥ २ ॥ स्मित्वा ततः सोऽर्थपरेङ्गितज्ञः कश्चिद्भटो नात्मगुणप्रशंसी । प्रच्छाद्य सद्भूतम ेदार्थमन्यद्वचो वभाषे क्षितिपाय युक्त्या ॥ ३ ॥ कश्चिद्भटः शूर उदारकीर्तिः श्रेष्ठ्यङ्गसूनुस्त्विति लोकवादः । स एव मे बन्धुतमः पिता च पिता न चान्यो भुवि विद्धि राजन् ॥ ४ ॥
एकोनविंश सग
संग्राम से लौटने के एक दिन बाद ज्ञानी वृद्ध पुरुषोंके साथ शान्तिपूर्वक बैठे हुए महाराज देवसेन अपनी राजदुलारीके विवाह के विषय में चर्चा कर रहे थे। निर्णय हो जानेपर उन्होंने कश्चिद्भटको बुला भेजा था। जब वह आ गया था तो सस्नेह free बैठाकर उससे अपने वंश तथा कुल-क्रमसे चली आयी प्रवृत्तियों के विषय में पूछा था ॥ १ ॥
कुल प्रश्न
'हे वत्स ! तुम कान्तिमान हो, तुम्हारे तेज तथा सामर्थ्यं तो असीम हैं तथा विज्ञानके साक्षात् भाण्डार हो । अपनी इन योग्यताओंके कारण ही तुम्हारो विशाल कीर्ति सब दिगन्तोंमें फैल गयी है । इन सद्गुणोंका ध्यान आते हो मुखसे निकल ही पड़ता है कि तुम्हारे माता-पिता धन्य हैं। यदि बतानेमें तुम्हें विशेष विराध न हो तो मैं उनके विषय में जानने के लिए उत्सुक हूँ, बताओ वे दोनों किस वंशकी शोभा बढ़ाते हैं ॥ २ ॥
कश्चिद्भट दूसरोंके मनके अभिप्रायोंको सरलता से समझ लेता था अतएव वह राजाके भावोंको जान गया था, किन्तु अपने मुखसे अपनी प्रशंसा करनेमें उसे संकोच होता था। इस कारणसे उसने अपने विषयकी वास्तविक बातोंको किसी प्रकार छिपाते ( सीधे रूपसे न कहते हुए ) हुए युक्तिपूर्वक राजासे कुछ ऐसे वचन कहने प्रारम्भ किये थे, जो प्रकृत विषयमें सर्वथा अनुपयोगी थे || ३ || कश्चिद्भटकी कृतज्ञता
'महा यशस्वी अनुपम वीर कश्चिद्भट ललितपुरके सार्थपति सागरवृद्धिका ज्येष्ठ पुत्र है इस तथ्यको सारा संसार १. [ मरेन्द्रः ] । २. [ सद्भूतमपार्थं° ] ।
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एकोनविंश: सर्गः
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