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________________ बराङ्ग चरितम् सप्तविंशः सर्गः नाभेयतीर्थे भरतो बभूव तथाजितोऽभूत्सगरो' नृपेन्द्रः । त्रिपिष्ट आसीत्खल शैतले च द्विपिष्टकः श्रेयसि तीर्थजातः॥४५॥ अभूत्स्वयंभवरवासुपूज्ये स वैमले वै पुरुषोत्तमश्च । दातुश्च' तीर्थे मघवान्नृपेन्द्रः सनत्कुमारो नरसिंहराजः ॥ ४६॥ शान्तिश्च कुन्थुस्त्वररात्रयोऽपि आर्हन्त्यचक्रत्वगुणोपपन्नाः । श्रीपुण्डरीकश्च सुभौमराजोऽप्यरस्य तीर्थे तु बभूवतुस्ते ॥ ४७ ॥ श्रीमल्लितीर्थे च महादिपद्म नारायणो दत्तहरों च जातः। नमेः सुतीर्थे जयधर्मकृष्णे स ब्रह्मदत्तश्च बभूव नेमेः (?) ॥ ४८ ॥ तीर्थकर काल तथा वासुदेवादि चक्रवर्ती इस युगके आदि पुरुष महाराज श्री ऋषभदेव तीर्थकरके कालमें प्रथम चक्रवर्ती श्री भरतजो हुये थे। दूसरे तीर्थंकर श्री अजितनाथके तीर्थकालमें ही महाराज सगर चक्रवर्तीने षटखण्डकी विजय को थी । प्रथम वासुदेव श्री त्रिपिष्टका आविर्भाव दशम तीर्थंकर श्री शीतलनाथके तीर्थकालमें हुआ था। श्री श्रेयान्सनाथके तीर्थकालमें ही द्वितोय वासुदेव द्विपिष्टका राज्य हुआ था।॥ ४५ ॥ परमपूज्य बारहवें तीर्थंकर श्री वासुपूज्यके तोर्थकाल में तृतीय वासूदेव स्वयंभने राज्य किया था तथा तेरहवें तीर्थंकर श्री विमलनाथके तीर्थकालको शोभा पुरुषोत्तम नाम चतुर्थ वासुदेवने बढ़ायो थो। परमदानी श्री धर्मनाथ तीर्थकरके कालमें तृतीय चक्रवर्ती महाराज मधवानका सम्राज हुआ था। पन्द्रहवें तीर्थकरके तोर्थकालमें ही चौथे चक्रवर्ती श्री सनत्कुमार तथा पञ्चम वासुदेव श्री नृसिंह हुये थे ।। ४६ ।। सोलहवें तीर्थंकर श्री शान्तिनाथ, सतरहवें श्री कुन्थुनाथ तथा अठारहवें श्री अरनाथ ये तीनों महात्मा तीर्थंकर तथा चक्रवर्तीके गुणों और शक्तियोंसे सम्पन्न थे। षष्ठ बासुदेव श्री पूण्डरीक तथा अष्टम चक्रवर्ती श्री सभौम इन दोनों शलाका पुरुषोंका प्रताप भगवान अरनाथके तीर्थकालमें (अर-मल्लिनाथ जिनके अन्तरालमें) ही चमका था ।। ५७॥ उन्नीसवें तीर्थंकर श्री मल्लिनाथके तीर्थकालमें नवम चक्रवर्ती श्री महापद्म, सातवें वासुदेव श्रीदत्त दशम चक्रवर्ती श्री हरिण तथा आठवें वासुदेव श्री नारायणका राज्य हुआ था । बीसवें तीर्थंकर श्रो नमिनाथके तीर्थकालमें ग्यारहवें चक्रवर्ती श्री जयसेन, तीसरे नारायण श्रीधर्म का लीला मधुर प्रताप चमकता था इक्कीसवें तीर्थंकर श्री नेमिनाथके तीर्थकालमें अन्तिम चक्रवर्ती श्री ब्रह्मदत्तने षट्खण्ड भारतको विजय की थी तथा अन्तिम वासुदेव श्री कृष्णजीका आविर्भाव हुआ था ।।। ४८॥ १. [ तथाजितेऽभूत् ]। २. [ धर्शस्य ]। ३. [ बभूवतुस्तौ ]। ४. क महादिपद्मा, [ पद्मो]। ५. म नारायणोऽधत्त हरी । । ६. क्रम भेद है। त्रिलोकसार, आदि ग्रन्थोंमें निशुम्भ चौथे । मधुकैटभ इनके बाद हुए हैं। ७. परिशिष्ट देखें। For Private & Personal Use Only PRESEATREESARमानामानिमा [५४ www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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