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नैवासि भवार्थविशेषदर्शी हितस्य वक्ता चन तेऽस्ति कश्चित् । न योग्यमेतद्वणिजां हि युद्धं कि वान्वयाचिन्तितमेतदाय ॥२७॥ अनेकहस्त्यश्वरथैः प्रकोणं बलं महद्योधसहस्रपूर्णम् । युद्धाविजेतुं समरे न शक्यं मा साहसं कर्म कृथाः प्रशाम्य ॥ २८॥ कुतश्चिदागत्य वणिक्सुतोऽभूत्कुतश्चिदागत्य वनेश्वरोऽभूत् । कुतश्चिदागत्य जनप्रियोऽभूत्त्वं वत्स मा मृत्युपथं प्रयाहि ॥ २९ ॥ पुरा वराकानटवीचरांस्तानशिक्षितानल्पमतोन्पुलिन्दान् । जित्वा रणे सागरवद्धिपुण्यादिदं तथैवेति मनस्यमंस्थाः ॥३०॥
सप्तदशः सर्गः
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निको
विशेषरूपसे कोई तुम्हारे हित तथा शुभकी चिन्ता करनेवाला नहीं है। न कोई ऐसा ही है जो तुम्हें हितका उपदेश । दे सके ? क्या तुम नहीं समझते हो कि इस प्रकार युद्धमें भाग लेना वणिकोंको शोभा नहीं देता है। अथवा हे आर्य ? यह तुमने क्या विचित्र निर्णय कर डाला है जिसे तुम्हारे वंशमें कभी किसीने मनसे भी न सोचा होगा ।। २७ ॥
नागरिकोंका मोह महाराज देवसेनकी यह विस्तृत सेना, जिसमें असंख्य अश्वारोही और गजारूढ़ योद्धा हैं, रथोंकी भी संख्या कम नहीं है तथा हजारों अनुपम महायोद्धाओंसे पूर्ण है, ऐसी यह सेना भी संभव है कि शस्त्र प्रहार करके विजय करनेमें समर्थ न हो । अतएव तुम ( कश्चिद्भट ) अतिसाहस मत करो, शान्त होओ और अब भी रुक जाओ ।। २८ ।।
किसी अज्ञात स्थानसे आकर तुम अपने शुभ लक्षणोंके कारण सार्थपतिके धर्मपुत्र हो गये थे, इसी प्रकार अकस्मात् 8 अपनी योग्यताओंके कारण वणिकोंकी प्रधानताको पा सके थे तथा कुछ ज्ञात अथवा अज्ञात कारणोंसे ही तुम जनसाधारणके स्नेहभाजन हो गये थे । अतएव हे वत्स ! यों ही मृत्युके मार्गपर क्यों चले जा रहे हो ।। २९ ।।
जनसाधारणको कल्पना इसमें सन्देह नहीं कि इसके पहिले तुमने अकेले ही पामर पुलिन्दोंको जीता था किन्तु वे जंगल-जंगल भागनेवाले रणकलामें सर्वथा अशिक्षित थे तब रणनीति तथा योजनाको तो जानेंगे ही क्या? इसके अतिरिक्त उस विजयमें सेठ सागरवृद्धिका पुण्यातुम्हारा प्रधान सहायक भी था। अतएव इस महासमरको भी मन ही मन वैसा ही मत समझो ।। ३० ।।
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१.क चिन्तितमेतदायम्, [ किं वा त्वया चिन्तितमेतदाय ]।
२. [ युद्ध विजेतु]।
३. क जनेश्वरो।
४. म मनस्यमस्थ ।।
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