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वराङ्ग चरितम्
तेषु ।
ऋतुषु' क्रमसंभवेषु तेषु प्रतिसंवत्सर मागतेषु परिपूर्णपयोधराभिरीशो वनिताभिवषयान्सुखं निषेवे ॥ ४ ॥ वरवंशमृदज्रगीत शब्दान्मुरजध्वान विमिश्रितान्स रागान् अशृणोच्छ्रवणेन्द्रियप्रियांस्तान्प्रमदानां
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मधुराक्षरप्रयुक्तान् ॥ ५ ॥ शयने विमले मणिप्रदीपे कमलाख्यः ३ परिरभ्य कामिनं तम् । वदनैर्जघनै स्तन प्रदेशैर्मू दुहस्तैरपि मदिरामललोललोचनानां वनितानां गलितांशुकलोलमेखलानां न ततपं प्रपिबन्यसुखानि तासाम् ॥ ७ ॥
पस्पृशुर्महीन्द्रम् ॥ ६ ॥ सुरतोत्सव प्रियाणाम् ।
प्रत्येक पञ्चाङ्गमय वर्ष में क्रमशः शरद आदि छह ऋतुओंके आनेपर सम्राट उनके अनुकूल विषय सुखोंका यथेच्छ भोग करते थे। विशेषकर अपनी रानियोंके साथ कामजन्य विषयोंका उपभोग करते थे, क्योंकि अवस्था तथा स्वास्थ्य के अनुकूल उनके स्तन आदि उपभोगके अंग पूर्णरूपसे विकसित हो चुके थे ॥ ४ ॥
सुखसागर में मग्न
यौवन तथा कामदेवके मदसे उन्मत्त अपनी पत्नियोंकी मनमोहक मधुर बातोंको सुनकर ही वह कामरससे मदमाता नहीं होता था अपितु कर्ण इन्द्रियको बलपूर्वक अपनी ओर आकृष्ट करनेमें पटु उनके गीतोंके शब्द, शब्दपर वह लोटपोट हो जाता था। जब वे गाती थीं तो उसके साथ-साथ उत्तम बांसुरियाँ बजती थीं मृदंग भी बजता था तथा इन बाजोंकी ध्वनिमें मुरजकी गम्भीर ध्वनि भी मिली रहती थी ॥ ५ ॥
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शयनगृहमें दुग्धके समान धवलशय्या बिछाकर मणियोंके रंग, विरंगे प्रकाशमय निर्धूम दीपक जलाये जाते थे । वहाँपर पहुँचते ही कमलोंके समान ललित नेत्रवती रानियाँ कामातुर वरांगराजका घोर आलिंगन करती थीं। इतना ही नहीं अपने मुखकमल, जंघाओं, कठोर स्तनों तथा सुकुमार हाथों के द्वारा सम्राटके अंग प्रत्यंगोंका स्पर्श करती थीं ॥ ६ ॥
कमलाक्षि रानियोंकी निर्मल आँखोंसे मदिरापानके समान उत्पन्न उन्माद टपकता था। कामप्रसंगका सुरतरूपी महान उत्सव[उन्हें इतना प्रिय था कि वे उसे करते न अघाती थीं। रिरंसा के आवेगसे आतुर होनेपर उनका वस्त्र खिसक जाता था और केवल चंचल करधनी ही कटिप्रदेशपर रह जाती थी । उनको इस रूप में पाकर कामी वरांगराज उनकी ओर एकटक देखते रह जाते थे तथा इन मुखोंका निरन्तर पान करते रहनेपर भी उन्हें तृप्ति न होती थी ॥ ७ ॥
१. ऋतुषु । २. [ सिषेवे ] |
३. [ कमलाक्ष्यः ] । ४. म प्रविवेत् ।
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चतुर्विंश: सर्गः
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