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बराङ्ग चरितम्
चतुर्विशः सर्गः अथ भूमिपतिरित्रकालयोग्यान न विरोधेन नयन्सुखार्थधर्मान् । जगति प्रवरां यशःपताकां सकलां कान्तिमिवेन्दुवबभार ॥१॥ शशिनः किरणाः स्वभावशीता दिनकृत्तीक्ष्णवपूर्जगत्प्रभः। हतभुग्दहनप्रकाशनात्मा जगदाप्यायनपण्डितो महेन्द्रः॥२॥ पृथिवी कठिनात्मिका प्रकृत्या द्रवता स्नेहगुणस्तथाप्सु वद्यः । सकला नपतौ गुणाः समेताः सति वैरुध्यतमेऽप्यबाधमानाः ॥३॥
है चतुर्विशः
सर्गः
चतुर्विंश सर्ग
प्रकृतिगुणोपेत राजा सम्राट वरांग धर्म, अर्थ तथा काम तीनों पुरुषार्थोंका ऐसे ढंगमे सेवन करते थे कि उनमेंसे कोई एक भी, बाकी दोनोंकी प्रगतिमें बाधा नहीं डालते थे। फलतः ये तीनों उनके तोनों कालोंको सुधारते थे। इस व्यवस्थित क्रमसे जोवन व्यतीत करते हुए उन्होंने अपने सुयशकी उन्नत तथा विशाल पताकाको उसी मात्रामें फहरा दिया था जिस रूपमें नक्षत्रराज चन्द्रमा संसारकी समस्त कान्तिको धारण करता है। निशानाथ चन्द्रमाकी धवल परिपूर्ण किरणें स्वभावसे ही शीतल होती हैं ॥१॥
शुभ तथा अशुभ सबही सांसारिक कार्योंका प्रवर्तक होनेके कारण जगत्प्रभु दिनकरकी किरणे अत्यन्त तीक्ष्ण होनेके 1 कारण असह्य होती हैं । हवनको सामग्रीको भस्म करनेवाली अग्निके भो दो ही गुण हैं:-पदार्थोंको जलाना तथा प्रकाश करना।
देवोंका अधिपति अलौकिक ऋद्धियों तथा सिद्धियोंका भंडार इन्द्र भी संसारकी दाहको वुझाकर उसे जलसे प्लावित ही करता है ॥ २॥
प्राणिमात्रको धारण करने में समर्थ धरित्रीकी प्रकृति हो कठिनतासे व्याप्त है। तथा जगतकी रसमय सृष्टिके मूल स्रोत जलमें भी दो ही गुण होते हैं-तरलता तथा स्नेह ( चिक्कणता ) शीलता। किन्तु ये सब हो गुण सम्राट वरांगमें एक साथ
होकर रहते थे। यद्यपि यह निश्चित है कि इनमें-शोतलता तथा उष्णता, द्रवता तथा कठिनता आदि अधिकांश गुण ऐसे हैं । जो कि एक दूसरेके बिल्कुल विपरीत हैं, तो भी सम्राट वराङ्गकी सेवामें आनेपर उन्होंने अपना पारस्परिक विरोध छोड़ दिया था ।।३।। १. क योग्योग्यानविरोधेन यत् । २. क पृथुवी । ३. [ वन्द्यः ] ।
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