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________________ बराङ्ग चरितम् नित्यप्रवृद्धाः प्रचलत्पताका नित्योत्थितान्येव च तोरणानि । नित्योत्सवाढ्यां ललिताह्नपुर्या' तानेव संपादितमास पूर्वम्' (?) ॥ १३ ॥ त्रिriagoकानथ चत्वरांश्च वीथी प्रदेशान्सुमहान्पथांश्च । विशोध्य सच्चन्दनतोयगन्धैः पुष्पाणि तत्र' प्रकिरविधिज्ञाः ॥ १४ ॥ यावदगृहद्वार मिलाधिपस्य यावत्पुनः सागर वृद्धिगेहम् । तावच्च संस्कारितमृद्धिमद्भिः प्रेक्षागृहैश्चित्रितमण्डपैश्च ॥ १५ ॥ क्वचिच्च मुक्तास्तरलाः पराढ्याः क्वचित्क्वचिद्विद्रुमदामकानि । क्वचिच्च हैमाम्बुरुहाणि रेजुः प्रलम्बितान्यप्रतिमानि तानि ॥ १६ ॥ विवाह निश्चय महाराजके आज्ञा देते हो पूरे नगर में प्रतिदिन नूतन पताकाएँ खड़ी की जाती थीं जो वायुके झोंकोंके साथ लहलहाती थीं, प्रत्येक दिशा में प्रतिदिन नये-नये विचित्र तोरणद्वार बनाये जाते थे, ऐसा एक भी दिन न बीतता था जिस दिन कोई नया उत्सव धूम-धाम के साथ न मन या जाता हो। इस प्रकार प्रतिदिन ही इस प्रकारके मंगल कार्य ललितपुर में होते थे, जिनके कारण उसका महत्त्व दिन दूना और रात चौगुना हो रहा था ॥ १३ ॥ नगर सब गलियों तथा उनके दोनों ओरके प्रदेशों, बड़े-छोटे राजमार्गों तथा प्रधान मार्गों, तिमुहानियों, चौराहों तथा सब ही चरवरों (चौपालें ) को भलीभाँति पूर्ण स्वच्छ किया गया था। उनपर सुगन्धित स्वच्छ चन्दन जल छिड़का जाता था। इतना ही नहीं नगर सजाने की शैली के विशेषज्ञ पुरुष इन स्थानोंको शोभा बढ़ाने के लिए इनपर फूलों तथा रत्नोंको विधिपूर्वक बिखेर देते थे ।। १४ ।। नगरकी शोभा समुद्रान्त पृथ्वीके पालक महाराज देवसेन के राजप्रासादके द्वारसे आरम्भ करके सार्थपतियों के अधिपति सेठ सागरबृद्धि - के महलके द्वारतक जितना प्रदेश था उनका साधारण संस्कार ही न हुआ था। अपितु उस पूरे अन्तराल में महाऋद्धिसे परिपूर्ण प्रदर्शनालय ( प्रेक्षागृह ) तथा विविध चित्र आदिसे भूषित महाविभवपूर्ण मंडप बनाये गये थे ।। १५ ।। कहीं पर बहुमूल्य अनुपम कान्तियुक्त मोतियों की राशि चमक रही थी उसे देखकर लहराते जलकी आशंका हो जाती थी, कहीं पर उत्तमसे उत्तम मूंगोंकी मालाएँ लटक रहो थीं, किसी दूसरे स्थलपर सोनेसे बनाये गये सुन्दर कमल शोभा दे रहे थे, तीसरे स्थलपर अनुपम शोभाके भंडार इन्हीं कमलोंको मालाएँ लटक रही थीं ॥ १६ ॥ १. क दान्वेव सपादितमास । २. क रत्न [ पुष्पाणि रत्नान्यकिरन् ] । ३. म प्रष्या । For Private & Personal Use Only Jain Education International एकोनविंशः सर्गः [ ३६२ } www.jainelibrary.org
SR No.001826
Book TitleVarangcharit
Original Sutra AuthorSinhnandi
AuthorKhushalchand Gorawala
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1996
Total Pages726
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size16 MB
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